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144 :: तत्त्वार्थसार
फलितार्थ यह हुआ कि पदार्थ जग में दो ही हैं; एक चेतन-जीव, दूसरा जड़ - पुद्गल । जो नाना कार्य अनुभवगोचर होते हैं वे इन्हीं दोनों की संयोगज अवस्थाएँ हैं । इन्हीं को विश्वकार्यकारी द्रव्य कहना चाहिए । जितना भोज्यभोजकता का अथवा विषयविषयिता का प्रकार देखने और जानने में आता है वह सब इन्हीं दो द्रव्यों का आडम्बर है ।
धर्माधर्माकाश काल द्रव्यों की सिद्धि : आचार्य बता चुके हैं कि विजातीय पदार्थ के संयोग बिना किसी पदार्थ में अवस्थान्तरण नहीं हो सकता है। इसी को दूसरे शब्दों में कहें तो यों कह सकते हैं कि कारण के बिना कार्य नहीं हो सकता है। कारण एक तो ऐसे होते हैं जो स्वयं कार्य की अवस्था में बदलकर कार्यरूप हो जाते हैं। जैसे माटी घट कार्यरूप स्वयं हो जाती है। इस कारण को हम उपादान कहते हैं । दूसरे कारण ऐसे होते हैं जो कार्योत्पत्ति होने में सहायता करते हैं, परन्तु कार्य उत्पन्न हो जाने पर भी स्वयं वे जुदे कायम बने रहते हैं । उनको आचार्य निमित्त या सहायक कारण कहते हैं। नैयायिकों ने भी इसे निमित्त ही कहा है, परन्तु प्रथम कारण का नाम समवायी रखा है। निमित्त कारण के उदाहरण घटोत्पत्ति के समय चाक, कुम्हार इत्यादि हो सकते हैं । कोई भी कार्य क्यों न हो, परन्तु उसके तैयार होने में उक्त दोनों ही कारणों की आवश्यकता पड़ती है ।
उपादान कारण प्रत्येक कार्य के विषय में जीव व पुद्गल ये दो ही हो सकते हैं। यद्यपि ये द्रव्य हैं, इसलिए नित्य हैं। अतएव कार्यों की उत्पत्ति एकदम हो जाने की आशंका उत्पन्न होगी, परन्तु यह ध्यान रहे कि हम यहाँ पर जीव- पुद्गल के सम्बन्ध से होनेवाले विकारों का विचार कर रहे हैं। इस समय वे ही हमारी दृष्टि में कार्य हैं। वे सभी कार्य जीव- पुद्गल के संयोग से उत्पन्न होते हैं और संयोग सदा एकसा रहता नहीं है, इसलिए वे कार्य यथासमय ही होते हैं, न कि सर्वदा । जिस प्रकार कार्य के उपादन कारण जुदे - जुदे होते हैं उसी प्रकार प्रत्येक कार्य के निमित्त कारण भी जुदे जुदे ही होते हैं ।
प्रत्येक कार्य के निमित्त कारण जैसे जुदे-जुदे होने चाहिए वैसे ही उन निमित्तों के उपयोग भी प्रत्येक कार्य में कुछ-न-कुछ जुदे ही जुदे होने चाहिए | उनमें से जो निमित्त कारण प्रत्येक कार्य की जुदीजुदी जिन विशेषताओं को उत्पन्न करते हैं उन विशेषताओं को तथा उन निमित्त कारणों को यहाँ जुदाजुदा गिनाकर दिखाना तो अवश्य है, परन्तु कार्यों की जो विशेष अवस्थाएँ स्थूल तथा परिमित हैं वे ही दिखाई जा सकती हैं।
उपभोग्य व दृश्यमान पर्यायों में चार बातें ऐसी दिख पड़ती हैं कि जिनका सम्बन्ध उनके उपादानों के साथ ही नहीं कहा जा सकता है। (1) एक कोई भी पदार्थ देखिए, यहाँ है, वहाँ है, नीचे है, ऊपर है, ऐसा एक न एक विशेषण उसमें अवश्य दिख पड़ेगा । ( 2 ) दूसरा विशेषण जब-तब ऐसा दिख पड़ेगा। तब से अब तक, इत्यादि प्रकार भी इसी दूसरे विशेषण के समझने चाहिए। (3) रुकता है, ठहरता है, स्थिर है, यह तीसरा विशेषण है । (4) चलता है, हिल रहा है, चंचल है, अस्थिर है, जा रहा है,
1. 'कर्ता जीवः षट्सु नान्ये' इत्यसगकविकृतं वर्धमानपुराणम्, अ. 15, श्लोक 16
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