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तृतीय अधिकार :: 145 पड़ रहा है, फेंका जा रहा है, सिकुड़ रहा है, पसर रहा है-इस प्रकार के विचार भी पदार्थ के देखने पर कभी-कभी हो उठते हैं, यह चौथा विशेषण है। प्रत्येक विशेषण को और भी अनेकों प्रकार से दिखा सकते हैं, परन्तु वे सभी उक्त प्रकार के ही प्रकारान्तर होंगे।
ये जो चार बातें देखने में आती हैं वे निष्कारण नहीं हो सकती हैं, क्योंकि, पदार्थ के न रहते हुए ज्ञान का होना असम्भव है। हाँ, मिथ्या ज्ञान ऐसे भी हो सकते हैं कि जिनका विषय जैसा कुछ दिख पड़ता है वैसा नहीं होता, परन्तु वे मिथ्याज्ञान सदा सर्वत्र सभी को एक से उत्पन्न नहीं होते और जिसको होते हैं उसको भी उनका मिथ्यापन कभी-न-कभी मालूम पड़ जाता है, परन्तु उक्त चार बातें जो भासती हैं उनका स्वरूप सर्वत्र व सभी को एक-सा भासता है। उत्तर काल में भी मिथ्यापना कभी किसी को प्रतीत नहीं होता, इसलिए उक्त चार बातों की निदान-कारणभूत चीजें अवश्य माननी चाहिए।
यद्यपि ये चारों बातें पदार्थों के देखने पर ही समझ में आती हैं तो भी इन बातों के द्वारा पदार्थों की कोई भी आकृति बदलती नहीं है। कोई भी पदार्थ जैसा चलने-फिरने में दिख पड़ता है वैसा ही ठहरने पर भी दिख पडता है। यदि किसी-किसी में अस्थिर से स्थिर अवस्था होने के समय कुछ बदलाव होता भी दिख पड़ता हो तो उसे गमन या ठहरने का कारण नहीं कह सकते हैं। क्योंकि, जो बदलाव ठहरने की अवस्था में एक बार दिख पडता है। वही दसरी बार पदार्थ के चलते-फिरते समय भी दिख पड़ते हैं। फलितार्थ यह हुआ कि वस्तुओं में परिवर्तन होना अलग बात है और ये चारों बातें अलग बात हैं, अत एव उक्त चारों विशेषण जो दिख पड़ते हैं वे जीव और पुद्गलों के गुण स्वभाव नहीं हो सकते और असत् भी नहीं हो सकते हैं। निराधार भी ये नहीं रह सकते हैं। जो गुण स्वभाव होते हैं वे किसी द्रव्य के अधीन रहते हैं। ये चारों गुण स्वभाव हैं और परस्पर में विजातीय हैं, इसलिए इनका आधार होना ही चाहिए, परन्तु वह आधार एक कोई पदार्थ नहीं हो सकता है। जिस प्रकार जडता तथा चैतन्य विजातीय होने से उनके आधार पुद्गल व जीव ऐसे जुदे-जुदे माने जाते हैं, उसी प्रकार उक्त चारों गुण स्वभावों
आधार भी चार मानने पड़ते हैं। प्रथम प्रकार के गण के आधार को 'आकाश' कहते हैं। दसरे विशेषण के आधार का नाम 'काल' है। तीसरे का आधार 'अधर्म' और चौथे का आधार 'धर्म' द्रव्य है।
भावार्थ-इन चारों द्रव्यों में उक्त चार सामर्थ्य हैं, इसीलिए दृश्यमान पदार्थों में इन चारों के सहवास से चार बातें पैदा होती हुई दिख पड़ती हैं। ये चारों द्रव्य व्यापक हैं, इसलिए कहीं और कभी भी इनके उक्त चारों कार्यों में अन्तर नहीं पड़ता। यदि आकाशादि द्रव्यों को अव्यापक माना जाए तो उक्त चारों कार्यों का सदा सर्वत्र होते रहना असम्भव हो जाएगा, परन्तु हम देखते हैं कि सदा और सर्वत्र ही उक्त चारों बातें दिखती हैं, इसीलिए उनके आधारों को भी व्यापक मानना न्यायसंगत है। यद्यपि काल कोई अखंड एक द्रव्य न मानकर अणु रूप माना गया है, परन्तु वे अणु यावत् आकाश में भरे हुए हैं, इसलिए काल को व्यापक कहना भी सिद्धान्त विरुद्ध नहीं हो सकता है। शेष तीन द्रव्य तो अखंड रूप से व्यापक माने ही गये हैं।
. अखंड-सखंडता का हेतु : धर्म, अधर्म तथा आकाश को अखंड एक द्रव्य मानकर काल को अणुरूप असंख्यात द्रव्य माना है, परन्तु इसके लिए कोई युक्ति भी है या नहीं? ऋषियों के कहने पर से भी सूक्ष्म तत्त्वों को मान लेना अनुचित नहीं हैं, परन्तु इसके लिए एक युक्ति भी है। वह यह कि, अणुमात्र प्रमाण से अधिक प्रमाणवाले जीव तथा पुद्गल के पर्याय बहुत से दिख पड़ते हैं। उन पर्यायों
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