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132 :: तत्त्वार्थसार
है तब फिर परमाणुओं का शुद्ध स्वरूप शेष रह जाता है, इसीलिए स्कन्ध रूप विकारी उत्पन्न होने में परमाणुओं की अपेक्षा पड़ती है । परमाणु रूप शुद्धता, विकार नष्ट होने पर, स्वयं प्रकट हो जाती है। अत एव परमाणु सदा कारण हैं और स्कन्ध सदा कार्य माने जाते हैं ।
स्कन्ध के समय अनेकों विकारी धर्म व्यक्त होते हैं परन्तु, परमाणुओं की शुद्ध अवस्था में एक गन्ध, एक रस, एक कोई वर्ण तथा दो स्पर्शों के अतिरिक्त वे सब विकार नष्ट हो जाते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु—ये सब स्वरूप बन्ध विचित्रता के वश स्कन्ध के समय ही दिख पड़ते हैं। मूल में ये परमाणुगत भेद नहीं हैं। यदि वास्तव में जलादि जातियों के परमाणु भिन्न-भिन्न रहते तो जल से वायु तथा वायु से जल एवं जल से पृथ्वी, पृथ्वी से जल- वायु - अग्नि इत्यादि रूपान्तर बनना सम्भव न होता, परन्तु ऐसा होते हुए दिखता है । यन्त्रों द्वारा जल का वायु और वायु से जल बन हुए दिख पड़ते हैं। दियासलाई एक लकड़ी और गन्धक आदि पृथ्वी के पर्यायों का संयोग है, परन्तु घिसने पर उसमें से अग्नि प्रगट हो जाती है। ऐसे अनेक उदाहरणों को देखकर यही निश्चय करना ठीक जान पड़ता है कि ये सब बन्धन की विचित्रता से नानारूप हो जाते हैं; किन्तु जाति सब की एक
है I
पुद्गल का लक्षण -
वर्ण - गन्ध-रस- स्पर्शसंयुक्ताः परमाणवः ।
स्कन्धा अपि भवन्त्येते वर्णादिभिरनुज्झिताः ॥ 61 ॥
अर्थ - वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श- ये चारों गुण परमाणुओं में रहते हैं । चूँकि ये चारों गुण परमाणुओं में रहते हैं तभी तो परमाणुओं से स्कन्ध बनते हैं, इसलिए स्कन्ध भी उक्त चारों गुणों से रहित नहीं हो सकते हैं।
वर्ण के स्थूल भेद पाँच माने गये हैं: (1) काला, (2) हरा', (3) लाल, (4) पीला, (5) सफेद। गन्ध के सुगन्ध व दुर्गन्ध ये दो प्रकार हैं । रस के पाँच भेद हैं: (1) तीखा, (2) कडुवा, (3) कषाय, (4) खट्टा, (5) मीठा । स्पर्श आठ प्रकार का है : (1) कठोर, (2) मृदु, (3) हलका, (4) भारी, (5) चिकना, (6) रूखा, (7) ठंडा, (8) गरम । नेत्र - स्पर्शनादि इन्द्रियों से इतने प्रकारों का अनुभव सर्वत्र व सुगमता से होता हुआ दिख पड़ता है । इनके अतिरिक्त अधिक भेद भी हो सकते हैं, परन्तु वे सूक्ष्मभेद होंगे, इसीलिए उन्हें जुदा गिनाने में ग्रन्थकार ने उपेक्षा की है। हरा रंग, कुछ रंगों के मिलाने पर हो जाता है; अत एव पाँच भेद जो वर्ण के बताये हैं वे मूल भेद कैसे ठहर सकते हैं ? ऐसी आशंका कुछ लोग करते हैं, परन्तु यह आशंका निर्मूल है। यहाँ पर मूल सत्ता की अपेक्षा से ये भेद नहीं लिखे गये हैं, किन्तु परस्पर के स्थूल अन्तर की अपेक्षा से हैं। इसी प्रकार रसादिक सम्बन्धी आशंका भी दूर कर लेनी चाहिए, क्योंकि वर्णादि भेदों की संख्या नियत होना अवश्य है ।
वर्णादि चारों गुण तथा उत्तर बीस पर्यायों का रहना पुद्गल के सिवाय दूसरे किसी द्रव्य में नहीं
1. काले व नीले ऐसे दो भेद मानकर हरे रंग को कितने ही लोग जुदा नहीं मानते परन्तु गोम्मटसार गाथा संस्कृत टीका में काले नीले की जगह एक ही वर्ण माना है और हरा जुदा एक रंग माना है, यही ठीक भी है।
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