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134 :: तत्त्वार्थसार
हो वह अभाषात्मक कहा जाता है। अभाषात्मक शब्द के उत्पन्न होने के दोनों निमित्त हैं; प्राणी तथा जड़ पदार्थ। जो केवल जड़ पदार्थों के आघात से उत्पन्न होता है उसे वैस्रसिक कहते हैं। प्राणियों के प्रयत्न से जो उत्पन्न हो उसे प्रायोगिक कहते हैं। बाँसुरी, भेरी, वीणा, ताल आदि के शब्दों को प्रायोगिक कहते हैं। मेघगर्जना आदि शब्दों को वैस्त्रसिक माना गया है। मुख से निकलने वाले शब्द जो अक्षरपद-वाक्य रूप हों उन्हें साक्षर भाषात्मक कहते हैं। जो निरक्षर ध्वनि की जाती है उसे अनक्षर भाषात्मक कहते हैं। इन्हीं के दूसरे नाम वर्णात्मक व ध्वन्यात्मक भी हैं।
शब्द की मूर्तिकता : शब्द को नैयायिक लोग आकाश का गुण मानते हैं, परन्तु ऐसा मानना ठीक नहीं है। आकाश अमूर्तिक हैं, उसके गुण भी जितने होंगे वे अमूर्तिक ही होंगे। शब्द कानों से सुना जाता है, इसलिए अमूर्तिक नहीं हो सकता अतएव आकाश का गुण भी नहीं हो सकता है। अमूर्तिक पदार्थ तथा अमूर्तिक गुण बाहरी इन्द्रियों का विषय नहीं हो सकता है। कंठ, तालु आदि मूर्तिक वस्तुओं के सम्बन्ध से शब्द का प्रादुर्भाव होता है, इसलिए शब्द की उत्पत्ति के कारण भी मूर्तिक ही हैं। अमूर्तिक पदार्थ या गुण किसी मूर्तिक वस्तु को आघात नहीं पहुंचा सकता है, परन्तु शब्द से आघात उत्पन्न होता है। कुछ लोग उस आघात को उच्छ्वासादि वायु का कार्य मानते हैं, परन्तु ध्वनि भी उसी वायु में उत्पन्न होती है, उसे शब्द कहते हैं। वायु के अतिरिक्त ध्वनि का कोई दूसरा उपादान या आधार मानना युक्ति रहित है। इस प्रकार शब्द को मूर्तिक पुद्गल-पर्याय मानना ही युक्तियुक्त है। संस्थान के भेद व उदाहरण
संस्थानं कलशादीनामित्थंलक्षणमिष्यते।
ज्ञेयमम्भोधरादीनामनित्थंलक्षणं तथा ॥ 64॥ अर्थ-संस्थान, आकृति को कहते हैं। नाना आकृतियों का होना पुद्गल द्रव्य में ही सम्भव है। आकृति एक तो ऐसी होती है कि जो कुछ नियत हो और जिसका मनुष्य कुछ नाम रख सकता हो। जैसे कि घटादि वस्तुओं की आकृति। घट की आकृति को कंबुग्रीवा आकृति कहते हैं। ऐसी आकृतियों को इत्थंलक्षण, ऐसा संस्कृत भाषा में कहते हैं। तिकोन, चौकोन, गोल, वर्तुल इत्यादि इसी इत्थंलक्षण आकृति के विशेष भेद हैं। जो नियत आकृति न हो और जिसका नाम रखा न जा सके उसे अनित्थंलक्षण आकृति कहते हैं। जैसे कि मेघों की आकृति।
सूक्ष्मत्व के भेद व उदाहरण
अन्त्यमापेक्षिकं चेति सूक्ष्मत्वं द्विविधं भवेत्।
परमाणुषु तत्रान्त्यमन्यद्विल्वारुणादिषु॥65॥ अर्थ- सूक्ष्मता स्वभाव भी पुद्गलों में ही पाया जाता है। एक-दूसरे को अपेक्षा से जहाँ सूक्ष्म कहते हैं वहाँ आपेक्षिक सूक्ष्मता कही जाती है। जैसे कि बेल के फल से मजीठ का फल छोटा या सूक्ष्म माना जाता है। जिससे अधिक सूक्ष्मता किसी में न मिल सकती हो उसे अन्तिम सूक्ष्मता कहते हैं। जैसे कि परमाणु की सूक्ष्मता। इस प्रकार सूक्ष्मता के अन्तिम व आपेक्षिक ये दो प्रकार हैं।
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