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54 :: तत्त्वार्थसार
भावार्थ - जिनका संयोग होने पर जीव जीवित और वियोग होने पर मृत कहलाता है उन्हें प्राण कहते हैं । इनके भावप्राण तथा द्रव्यप्राण के भेद से दो भेद हैं। आत्मा के ज्ञान- दर्शनादि गुणों को भावप्राण कहते हैं और इन्द्रियादिक को द्रव्यप्राण कहते हैं । द्रव्यप्राण के ऊपर कहे हुए दश भेद हैं। इनमें से एकेन्द्रिय जीव के पर्याप्तक अवस्था में स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण और अपर्याप्तक अवस्था में श्वासोच्छ्वास को छोड़कर तीन प्राण होते है । द्वीन्द्रिय जीव के पर्याप्तक अवस्था में स्पर्शन और रसना, इन्द्रिय, कायबल, आयु, श्वासोच्छ्वास और वचनबल ये छह प्राण तथा अपर्याप्तक अवस्था में श्वासोच्छ्वास तथा वचनबल के बिना चार प्राण होते हैं। त्रीन्द्रिय जीव के पर्याप्तक अवस्था में घ्राण इन्द्रिय अधिक होने से सात प्राण और अपर्याप्तक अवस्था में पाँच प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रिय जीव के पर्याप्त अवस्था में चक्षुरिन्द्रिय बढ़ जाने से आठ प्राण तथा अपर्याप्तक अथवा में छह प्राण होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रियजीव के पर्याप्तक अवस्था में कर्णेन्द्रिय बढ़ जाने से नौ प्राण तथा अपर्याप्तक अवस्था सात प्राण होते हैं। और संज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्तक अवस्था में मनोबल बढ़ जाने से दश प्राण तथा अपर्याप्तक अवस्था में सात प्राण होते हैं । तेरहवें गुणस्थान में इन्द्रियों तथा मन का व्यवहार नहीं रहता इसलिए वचनबल, श्वासोच्छ्वास, आयु और कायबल चार ही प्राण होते हैं। इसी गुणस्थान में वचनबल का अभाव होने पर तीन तथा श्वासोच्छ्वास का अभाव होने पर दो प्राण रहते हैं। चौदहवें गुणस्थान में कायबल का भी अभाव हो जाता है, इसलिए सिर्फ आयुप्राण रहता है।
आहारादि चार संज्ञाएँ
आहारस्य भयस्यापि संज्ञा स्यान्मैथुनस्य च । परिग्रहस्य चेत्येवं भवेत्संज्ञा चतुर्विधा ॥ 36 ॥
अर्थ - आहार, भय, मैथुन व परिग्रह इन चार विषयों की तीव्र वांछा को चार प्रकार की संज्ञा कहते हैं। ये चारों संज्ञाएँ भी जीवमात्र में रहती हैं। आहारादि उक्त चारों विषयों की तरफ प्रवृत्ति होना केवल मन के विचार का काम नहीं है, किन्तु एकेन्द्रियादि जीव में भी ये प्रवृत्तियाँ होती हैं । चारित्रमोह कर्म के उदय का यह साधारण कार्य है । अतएव इन प्रवृत्तियों में हिताहित की अपेक्षा नहीं रहती और न इन प्रवृत्तियों के होने से मन का अस्तित्व ही मान लेना चाहिए ।
भावार्थ - जिन इच्छाओं के द्वारा पीड़ित हुए जीव इस लोक तथा परलोक में नाना दुःख उठाते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं। उसके चार भेद हैं- आहार, भय, मैथुन और परिग्रह । इनका स्वरूप इस प्रकार हैआहारसंज्ञा - अन्तरंग में असातावेदनीय की उदीरणा होने से तथा बहिरंग में आहार के देखने और उस ओर उपयोग जाने से खाली पेटवाले जीव को जो आहार की इच्छा होती है उसे आहारसंज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा पहले गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक रहती है ।
भयसंज्ञा - अन्तरंग में भय नोकषाय की उदीरणा होने से तथा बहिरंग में भयंकर वस्तु के देखने और उस ओर उपयोग जाने से शक्तिहीन प्राणी को जो भय उत्पन्न होता है उसे भयसंज्ञा कहते हैं । यह संज्ञा आठवें गुणस्थान तक होती है।
मैथुनसंज्ञा - अन्तरंग में वेद नोकषाय की उदीरणा होने से तथा बहिरंग में कामोत्तेजक गरिष्ठ रसयुक्त भोजन करने, मैथुन की ओर उपयोग जाने तथा कुशील मनुष्यों की संगति करने से जो मैथुन की इच्छा होती है उसे मैथुनसंज्ञा कहते हैं । यह संज्ञा नौवें गुणस्थान के पूर्वार्ध तक होती है।
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