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82 :: तत्त्वार्थसार
में जा सकें। यह सब मलिन परिणामों का फल है। चौथे नरक से मरकर आने वाले कुछ जीव मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु तीर्थंकर नहीं हो सकते। धर्म के नेता को तीर्थंकर कहते हैं, यह अतिपवित्र पदवी है। तीसरे आदि नरकों से मरकर आये हुए जीव तीर्थंकर भी बन सकते हैं, परन्तु बलभद्र, नारायण या चक्रवर्ती का पद किसी भी नरक से आये हुए जीव को प्राप्त नहीं हो सकता है।
किसका जन्म कहाँ होता है
सर्वेऽपर्याप्तका जीवाः सूक्ष्मकायाश्च तैजसाः । वायवोऽसंज्ञिनश्चैषां न तिर्यग्भ्यो विनिर्गमः ॥ 153 ॥
अर्थ-सभी अपर्याप्त जीव, तैजसकायिक सूक्ष्म जीव, वायुकायिक सूक्ष्म जीव तथा असंज्ञी जीवये सभी मरकर तिर्यंचों में ही उत्पन्न होते हैं, इनकी तिर्यंचगति छूट नहीं पाती है।
त्रयाणां खलु कायानां विकलानामसंज्ञिनाम् ।
मानवानां तिरश्चां वाऽविरुद्धः संक्रमो मिथः ॥ 154 ॥
अर्थ - द्वीन्द्रिय, त्रीद्रिन्य व चतुरिन्द्रिय इन तीन विकलेन्द्रिय कायों का, असंज्ञी जीवों का एवं मनुष्य व संज्ञी तिर्यंचों का परस्पर में उत्पाद हो सकता है अर्थात् ये मरकर एक दूसरों में उपज सकते हैं । नारकाणां सुराणां च विरुद्धः संक्रमो मिथः ।
नारको नहि देवः स्यान् न देवो नारको भवेत् ॥ 155 ॥
अर्थ- - नारक व देवों का परस्पर संक्रम नहीं हो सकता है अर्थात् नारक मरकर देव नहीं हो सकता और देव मरकर सीधा नारक नहीं हो सकता है।
कौन से स्थावर में मनुष्यादि मरकर उत्पन्न हो सकते हैं ?
भूम्यापः स्थूलपर्याप्ताः प्रत्येकांगवनस्पतिः। तिर्यग्मानुषदेवानां जन्मैषां परिकीर्तितम् ॥ 156 ॥
अर्थ- - बादर पर्याप्तक भूमिकायिक व जलकायिक तथा प्रत्येक शरीर वाले वनस्पति, इनमें तिर्यंच, मनुष्य व देव - ये सब उत्पन्न हो सकते हैं ।
मनुष्यों में कौन से स्थावर उत्पन्न नहीं होते ?
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सर्वेऽपि तैजसा जीवाः सर्वे चानिलकायिकाः । मनुजेषु न जायते ध्रुवं जन्मन्यनन्तरे ॥ 157 ॥
अर्थ – सभी तैजस एवं वायुकायिक जीव मरकर सीधे मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकते हैं ।
असंज्ञी का जन्म चारों गतियों में हो सकता है
पूर्णासंज्ञितिरश्चामविरुद्धं जन्म जातुचित् । नारकामरतिर्यक्षु नृषु वा न तु सर्वतः ॥ 158॥
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