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112 :: तत्त्वार्थसार
अर्थात् 'होकर होना' ऐसा भी कहते हैं। भूत्वा-भवन शब्द बोलने से जो व्ययोत्पाद का सत्-नाश तथा असत्-उत्पाद ऐसा अनर्थ करने रूप विपर्यास होना सम्भव था वह नहीं रहता। क्योंकि होकर होनाये पूर्वोत्तर दोनों क्रियाएँ एक पदार्थाश्रित' हो सकती हैं, इसलिए जो पहले हुआ था वही अब भी होता है, ऐसा 'भूत्वा भवन' शब्द का अर्थ मानना उचित है, अर्थात् अवस्थाओं का परिवर्तन अवश्य होता है तो भी किसी भी सत् का नाश नहीं होता और न किसी असत् का प्रादुर्भाव ही होता है।
सभी गुणों के परिवर्तन को यद्यपि पर्याय कह सकते हैं, परन्तु यहाँ ऐसा नहीं किया है। यहाँ द्रव्य की आकृति बदलने को पर्याय कहते हैं और शेष गुणों को या गुणों की पर्यायों को 'गुण' शब्द से कहते हैं, इसीलिए पर्याय और गुण, इन दोनों में व्ययोत्पाद का वर्णन किया है। द्रव्यों की नित्यता
द्रव्याण्येतानि नित्यानि तद्भवान्न व्ययन्ति यत्।
प्रत्यभिज्ञानहेतुत्वं तद्भावस्तु निगद्यते॥14॥ अर्थ- पूर्वोक्त सभी द्रव्य अपने-अपने मूल स्वभावों से कभी च्युत नहीं होते, इसीलिए द्रव्यों को नित्य कहते हैं। द्रव्यों के मूल स्वभावों की परीक्षा करने का उपाय यह है कि जो एकत्व-प्रत्यभिज्ञान को उत्पन्न कर सकते हों वे ही मूल स्वभाव हैं और उन्हें नित्य मानना चाहिए।
प्रत्यभिज्ञान परोक्षज्ञान का एक प्रकार है। इसका स्वरूप पीठिका में मतिज्ञान का वर्णन करते समय कह चुके हैं। प्रथमानुभव का स्मरण होने पर तथा वर्तमान किसी वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर जो दोनों ज्ञानों के विषयों में किसी प्रकार का सम्बन्ध जोड़ना है वह तृतीय ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है। सादृश्यप्रत्यभिज्ञान, वैसादृश्य-प्रत्यभिज्ञान, एकत्व-प्रत्यभिज्ञान इत्यादि उसके अनेक भेद हैं। यहाँ पर जो नित्यता बतानेवाला प्रत्यभिज्ञान कहा गया है वह केवल एकत्व-प्रत्यभिज्ञान है। किसी एक ही वस्तु को प्रथम देखा हो और फिर भी वही देखने में आवे तो प्रथमानुभव का स्मरण होते ही ऐसा संकल्प उत्पन्न होता है कि अमुक जो चीज पहले देखी थी वही यह है। यह एकत्व-प्रत्यभिज्ञान, पूर्वोत्तर पर्यायों को भिन्न मानने से नहीं हो सकता है, परन्तु होता अवश्य है, इसलिए जहाँ पर एकत्व-प्रत्यभिज्ञान हो वहाँ मानना चाहिए कि उस पूर्वोत्तर पर्यायों में कोई मूल स्वभाव शाश्वत है, इसीलिए एकत्व-प्रत्यभिज्ञान होता है, यह नित्यता की सिद्धि हुई। द्रव्यों के अपरिहार्य भेद
इयत्तां नातिवर्तन्ते यत: षडिति जातुचित्।
अवस्थितत्वमेतेषां कथयन्ति ततो जिनाः॥15॥ अर्थ-द्रव्यों के जो मूल भेद छह किये गये हैं और उत्तर भेद जिसके जितने किये गये हैं उनकी मर्यादा का भंग कभी नहीं हो सकता, इसलिए सभी द्रव्य ज्यों के त्यों बने रहते हैं, ऐसा श्रीजिनेन्द्र भगवान् कहते हैं। ज्यों के त्यों कायम रहने का नाम अवस्थित है, इसलिए द्रव्यों को अवस्थित कहते हैं।
1. 'समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वा' यह व्याकरण का वचन है। क्त्वा प्रत्यय करते समय पूर्व क्रिया का भी कर्ता वही होगा जो
कि उत्तर का है।
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