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तृतीय अधिकार :: 121
ईंधन है। सुगन्धित पुष्पादिक भी इसी के उदाहरण हो सकते हैं। पुष्प के गन्ध प्रदेश पुष्प के ही भीतर रहनेवाले होते हैं, परन्तु वायु के सम्बन्ध से सर्व दिशाओं में कोसों दूर तक फैल जाते हैं। इसी प्रकार ईंधन का तथा करीष-पटल का बन्धन होता है। करीष सूखे हुए गोबर को कहते हैं। उसका पटल छोटीसी जगह में रहनेवाला होकर भी जब जलाया जाता है, तब आकाश मंडलभर को धुआँ बनकर घेर लेता हैं। क्या धुआँ ईंधन में से ही अथवा करीष में से ही नहीं निकलता है ? इसलिए मानना पड़ता है कि दिङ्मंडल को धुआँ बनकर व्यापनेवाले सर्व प्रदेश करीष की तथा ईंधन की अवस्था में अल्पक्षेत्र में ही संकुचित होकर रहा करते हैं। यह सब बन्धन की महिमा है कि थोड़े से आकाश में अधिक पुद्गल समा सके। असंख्यात आकाशप्रदेशों में अनन्तानन्त पुद्गल इसी प्रकार रहते हैं। धर्म-अधर्म-आकाश द्रव्य का उपकार
धर्मस्य गतिरत्र स्यादधर्मस्य स्थितिर्भवेत्।
उपकारोऽवगाहस्तु नभसः परिकीर्तितः॥30॥ अर्थ-धर्म द्रव्य का उपयोग यह है कि सभी जीव तथा पुद्गलों का गमन उसके आश्रय से होता है। मछलियाँ चलें तो जल प्रेरणा नहीं करता और ठहरें तो भी वह चलाने की प्ररेणा नहीं करता। वे चलें तो चलो, और ठहरें तो ठहरो। चलना या ठहरना केवल मछलियों की इच्छा पर अधीन है। तो भी जल के सहारे विना वे चल नहीं सकती, इसलिए उनके चलने में जल को सहायक माना जाता है। यही बात 'धर्म द्रव्य' की है। वह उदासीनता से सबके गमन में सहायक होता है। वह जहाँ न हो वहाँ किसी भी वस्तु का गमन नहीं हो सकता है, इसीलिए लोकालोक की मर्यादा बनी हुई है।
लोक मूर्तिमान है अतएव अवधियुक्त है। यदि कोई पदार्थ गतिसाधक जुदा न हो तो अवधि से आगे भी गमन होने लगेगा। यदि लोकवर्ती एक-एक वस्तुओं का लोकाकाश के आगे गमन होने लगा तो वस्तुओं की जो एकत्र श्रृंखला दिख पड़ती है वह नहीं रहेगी, क्योंकि अमर्यादित अलोक में एक पदार्थ चला गया तो फिर लोक के भीतर उसे लानेवाला कौन है ? इस क्रम में अलोक में एक-एक पदार्थ जाते-जाते आज एक भी पदार्थ यहाँ दृष्टिगत न होता, परन्तु अनेकों पदार्थ यहाँ परस्पर में मिश्रित दिख पड़ते हैं, इसलिए मानना चाहिए कि जिसके बिना गति नहीं होती ऐसा दूसरा पदार्थ है और वह लोक में ही है, अलोक में नहीं। अतएव लोक के भीतर गति होती है, और लोक के बाहर पदार्थ जा नहीं पाते हैं।
जबकि पदार्थों के गमन का एक दूसरा कारण है तो गमन एक बार जो हुआ वह सतत न होता रहे, किन्तु स्थिति होने के समय पदार्थ ठहर भी जाए, इसलिए स्थितिसाधक उदासीन निमित्त भी एक मानना चाहिए। उस निमित्त को 'अधर्म द्रव्य' कहते हैं। इसका उदाहरण यह है कि एक पुरुष जो सूर्य की किरणों से सन्तापित होकर ठहरना तो चाहता है, परन्तु छाया जहाँ हो वहाँ ठहरता है। यद्यपि छाया में यह शक्ति नहीं है कि वह मनुष्य को बलात् ठहरा ले, तो भी ठहरनेवाले के लिए वह कारण है। इसी प्रकार उदासीन कारणता अधर्म-द्रव्य में है। यह अधर्म द्रव्य का उपयोग हुआ। आकाश का उपयोग अवगाह देना है।
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