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तृतीय अधिकार माटी आदि पूर्वोत्तर अवस्थाओं से उस घट में कुछ भी विशेषता नहीं भासती । उस समय हम यही कहते हैं कि घट भी एक माटी है और कपाल भी एक माटी है, इसीलिए कपाल और घट में परस्पर कुछ भी अन्तर नहीं है । जब हम विशेषता या पर्यायदृष्टि से देखते हैं, तब घट तथा कपाल में अन्तर मानने लगते हैं। उस समय हम कहते हैं कि घट, कपाल एक नहीं है। इसके लिए प्रमाण देते हैं कि दोनों के नाम भिन्न हैं, लक्षण' भिन्न हैं। वस्तु एक ही हो तो उसके लक्षण दो नहीं हो सकते और प्रयोजन में भी अन्तर नहीं रह सकता है। घट में जो हम पानी भर सकते हैं वह प्रयोजन कपाल से सधता नहीं है । यदि ये दोनों एक होते तो कपाल से पानी भरने का काम निकलना चाहिए था। बस, इसीलिए घट और कपाल परस्पर भिन्न हैं। ये एक ही माटी के पर्याय हैं, परन्तु भिन्न प्रयोजनसाधक' होने से दोनों सत्य हैं। इस प्रकार माटी की दृष्टि से घट व कपाल अध्रुव हैं और माटीपना ध्रुव है । इसलिए माटी घट-कपाल को ध्रुवाध्रुवरूप मानने में हानि नहीं है । अध्रुव को पर्याय या उत्पाद-व्यय कहते हैं । इसलिए घट-कपाल व मिट्टी उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप सिद्ध हुए ।
जो केवल क्षणिक या पर्यायरूप वस्तु को मानते हैं उनके कथन में निराधारता का दोष लगता है । ध्रुव आश्रय को न मानकर केवल पर्याय को वस्तुस्वरूप कहें तो बीज तथा वृक्ष का कुछ भी सम्बन्ध सिद्ध नहीं होगा। जिनका सम्बन्ध ही कुछ परस्पर में न हो वे एक दूसरे के अधीन नहीं रह सकते हैं । बीज के बिना भी वृक्ष उत्पन्न होना चाहिए, परन्तु होता नहीं है । इसीलिए, बीज का वृक्ष के साथ सामान्यरूप सम्बन्ध मानना पड़ता है। वह सामान्यरूप सम्बन्ध ऐसा है कि बीज - वृक्ष इन दोनों अवस्थाओं में शाश्वत रहता है, अतः उसे नित्य या ध्रुव मानने की आवश्यकता है।
इससे उलटा यह भी नहीं कह सकते हैं कि अध्रुव को न मानकर केवल ध्रुव ही मान लेना चाहिए। क्योंकि, केवल ध्रुव मानने से पर्याय बदलने का सामर्थ्य सर्वथा माना ही नहीं जा सकता और तब पदार्थों का स्वरूप सदा एक सरीखा रहने लगेगा, परन्तु यह सम्भव नहीं है। माटी से घट पर्याय बदलता है और घट से कपाल, शर्करा आदि पर्याय बदलते जाते हैं, इसलिए केवल ध्रुव मानना भी ठीक नहीं है ।
इस प्रकार कथंचित् ध्रुवाध्रुव होने से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य-स्वरूप की सिद्धि होती है । यहाँ पर एक यह शंका होना सम्भव है कि जब • उत्पाद होता है तब व्यय नहीं होता और जब किसी में व्यय होता है तब उत्पाद नहीं होता, इसलिए किसी एक समय में व्ययोत्पाद ये दोनों सम्भव नहीं हो सकते हैं, अतएव लक्षण व्यय, ध्रौव्य तथा उत्पाद, ध्रौव्य ऐसे भिन्न-भिन्न समयों की दृष्टि से दो क्यों न मानने चाहिए ? इसका उत्तर है
व्यय और उत्पाद, ये दोनों प्रत्येक समय में रहते हैं और युगपत् रहते हैं । देखिए, घटनाश के समय में ही यदि कपालोत्पाद न हो तो माटी की या उस घटना की अवस्था निराकार हो जाएगी, क्योंकि पूर्वाकार का नाश है और उत्तराकार आगे होगा, इसलिए एक भी आकार व्यय के समय में नहीं रहा । जो निराकार या निर्विशेष है अथवा जिसकी कोई अवस्था सिद्ध नहीं है उसे अवस्तु मानना न्याय है। इस प्रकार उत्पाद
1. संज्ञासंख्यालक्षणप्रयोजनादिभेदाद् भेदः ।
2. अर्थक्रियाकारित्वं (प्रयोजनसाधकत्वं ) हि वस्तुनो वस्तुत्वम् । (आ. प.)
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