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108 :: तत्त्वार्थसार
कह सकते हैं। 'काय' शब्द का भी अर्थ संचय ही होता है। 'अस्ति' शब्द का अर्थ सद्भाव अथवा विद्यमान होता है। पाँचों द्रव्य विद्यमान हैं और अनेक प्रदेशी होने से संचयरूप भी हैं, इसीलिए जिन भगवान ने पाँचों द्रव्यों को अस्तिकाय कहा है। काल द्रव्य अस्तिरूप तो है, परन्तु कायवान् नहीं है।
द्रव्य का लक्षण
समुत्पाद-व्यय-ध्रौव्यलक्षणं क्षीणकल्मषाः।
गुणपर्ययवद् द्रव्यं वदन्ति जिनपुंगवाः॥5॥ अर्थ-वीतराग जिनेन्द्र भगवान ने द्रव्य का लक्षण इस प्रकार कहा है : उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य जिसमें हों वह द्रव्य है अथवा गुणपर्याययुक्त वस्तु का नाम द्रव्य है। गुणपर्यायों का लक्षण आगे कहेंगे, परन्तु दोनों लक्षणों का तात्पर्य एक ही है। शाश्वत शक्तियों को गुण कहेंगे और एक-एक समय में तथा कुछ काल तक टिककर रहनेवाले विकार को पर्याय कहेंगे। यही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का मतलब है । शाश्वतिक शक्ति को ध्रौव्य कहते हैं और पर्याय को उत्पाद तथा व्यय नाम से कहते हैं। जहाँ उत्पाद-व्यय होते हैं वहाँ ही मूल वस्तु में विक्रिया होती है। विक्रिया हुए बिना एक क्षणभर भी कोई वस्तु रह नहीं सकती है। एक विक्रिया नष्ट हुई कि दूसरी विक्रिया उत्पन्न हो जाती है। हम वस्तुमात्र का यह स्वभाव देखते हैं। विक्रियाओं का जो आधार रहता है वही ध्रौव्य है। आधार रहे बिना भी विक्रिया होना असम्भव है, इसलिए ध्रौव्य धर्म को भी वस्तुमात्र का स्वभाव मानना उचित ही है।
___ कितने ही लोगों का ऐसा मत है कि ध्रौव्यमात्र वस्तु का मूल स्वभाव है। विक्रिया मूल स्वभाव नहीं है। विक्रिया किसी उपाधिवश होती है, इसलिए विक्रिया को वस्तु-स्वभाव मानना अन्याय है।
कितने ही यह कहते हैं कि विक्रिया परनिमित्त में नहीं होती, किन्तु स्वयं ही होती है। देखते हैं कि कुछ भी निमित्त न मिलने पर भी पका हुआ खेत सूखता ही है, फिर वह टिक नहीं सकता। ऐसे और भी बहुत उदाहरण हैं, इसलिए विक्रिया को ही वस्तु का स्वभाव मानना चाहिए। विक्रिया के सिवा क्षणभर भी ध्रौव्य स्वभाव स्वतन्त्र नहीं रह सकता है और अलग से ध्रौव्य देखने में भी नहीं आता है. इसलिए विक्रिया ही वस्तु का स्वभाव है, ध्रौव्य नहीं। यह मत बौद्धों का है और ध्रौव्य को माननेवाले वेदान्ती तथा सांख्य हैं। नैयायिक आकाशादि कुछ पदार्थों को केवल नित्य ही मानता है और पृथ्वी आदि को कारण दशा में नित्य व कार्यदशा में अनित्य मानता है। इस प्रकार हमारे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग शंकाएँ और विरुद्ध मत हैं।
जिसका समाधान इस प्रकार है-कोई भी वस्तु न केवल ध्रुव ही है और न क्षणिक-पर्यायरूप ही है। प्रत्येक वस्तु ध्रुव भी है और अध्रुव भी है। देखने से वस्तुस्वभाव की परीक्षा सहज हो सकती है। जो वस्तु जिस प्रकार की दिखती हो उसे वैसा ही मानना चाहिए। विशेषता से देखते हैं तो वही वस्तु विशेष तरह की भासती है। सामान्यता से देखते हैं तो वही वस्तु सामान्य भासने लगती है। अथवा जब पूर्वापर पर्यायों का विचार छोड़कर देखते हैं तो वस्तु ध्रुव दिखती है। जब पूर्वापर पर्यायों पर लक्ष्य देते हैं तो उसका पर्याय या क्षणिकरूप ही भासने लगता है। इसीलिए वस्तुओं को क्षणिक भी मानना चाहिए और ध्रुव भी मानना चाहिए। एक घट को जब हम सामान्य दृष्टि से देखते हैं तो कपालादि तथा
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