________________
106 :: तत्त्वार्थसार
जब किसी अपेक्षा को खुलासा दिखाना हो तो 'स्यात् ' शब्द बोलने की आवश्यकता नहीं है और यदि 'स्यात्' बोला हो तो 'स्यात्' शब्द से ध्वनित होनेवाली अपेक्षा को बोलना नहीं चाहिए । 'स्यात् ' शब्द अपेक्षाओं का सामान्य सूचक है, इसीलिए दोनों शब्द एक वाक्य में बोलने से पुनरुक्ति दोष आ सकता है।‘स्यात्’ इस शब्द को यहाँ संशयसूचक नहीं मानना चाहिए। 'कथंचित्' शब्द का भी स्यात् के बदले में प्रयोग हो सकता है।
3. यद्यपि अस्ति और नास्ति ये दो स्वभाव जीव के सिद्ध हुए तो भी उन दोनों को एक साथ बोलना अशक्य है। एक वाक्य के परस्पर विरोधी दो अर्थ होना सम्भव नहीं हैं इसलिए युगपत् बोलने की अपेक्षा के समय जीव अवक्तव्य हो जाता है ।
4. क्रम से बोलना हो तो अस्ति नास्ति ऐसे दोनों धर्ममय जीव होगा। इसी को 'स्यादस्तिनास्ति' ऐसा कहते हैं ।
5. अस्तित्व कहने की उत्कंठा हुई कि नास्तित्वधर्म के विचार ने यदि उसे दबा दिया तो उस समय यही कहना चाहिए कि जीव अस्ति होकर भी अवक्तव्य है अर्थात् 'स्यात् अस्त्यवक्तव्य' है ।
खड़ा
6. नास्तित्व बताने की इच्छा के समय अस्तिरूप यदि अस्तित्व धर्म भी प्रतिपक्षी रूप से मन में हो जाए तो नास्तित्व होकर भी अवक्तव्य हो जाता है इसी को 'स्यान्नास्त्यवक्तव्य' ऐसा कहते हैं। 7. क्रम से दोनों धर्म वक्तव्य हैं, परन्तु युगपत् की दृष्टि से अवक्तव्य हैं। किसी मनुष्य ने जीव को क्रमापेक्षया जिस समय अस्ति नास्ति ऐसे दोनों धर्मयुक्त कहना चाहा हो उसी समय यदि युगपत् की अपेक्षा भी मन में उठ खड़ी हो तो जीव स्याद् अस्तिनास्तिरूप होकर भी अवक्तव्य हो जाता है, इसी को 'स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य' कहते हैं । इस सातवें भंग में अस्तिनास्तित्व का अवक्तव्यपना विशेषण करना चाहिए । जो अस्तिनास्ति इन दो धर्मों की तरह अवक्तव्य को एक तीसरा धर्म स्वतन्त्र मानते हैं उनके अनुसार सातवाँ भंग बन नहीं सकता है।
इन सात भंगों में से ईप्सित (अभीष्ट) को विधेय बना लेने से स्याद्वाद व्यवहारोपयोगी होता है । यह संशयवाद नहीं है, क्योंकि संशयवाद में एक भी कोटी विधेय नहीं बन पाती है।
इति श्री अमृतचन्द्राचार्य रचित 'तत्त्वार्थसार' में, 'धर्मश्रुतज्ञान' हिन्दी टीका में जीव तत्त्व का कथन करनेवाला द्वितीय अधिकार पूर्ण हुआ ।
1. विधेयमीप्सितार्थांगं प्रतिषेध्याऽविरोध यत् ।
तथैवाऽऽदेयहेयत्वमिति स्याद्वादसंस्थितिः । - आप्तमीमांसा ॥113 ॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org