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104 :: तत्त्वार्थसार
__अर्थ-इस प्रकार संसारी जीवों का सब लोक क्षेत्र है, यह बात दिखा दी गयी। सिद्ध जीवों का लोक के ऊपर केवल अन्तिम थोड़ा-सा भाग ही निवास-क्षेत्र है। संसारी जीव यद्यपि सभी सर्वत्र नहीं रह सकते हैं। त्रस जीव त्रसनाली में ही रहते हैं। नारक, मनुष्य तथा देवों के स्थान भी त्रसनाली के अन्तर्गत थोड़े से नियत किए हुए ही हैं। तिर्यंच भी जो पंचेन्द्रिय हैं वे केवल मध्यलोक में ही रहते हैं, तो भी संसारी जीवों का निवास क्षेत्र कहने का मतलब यह होना चाहिए कि एक भव का क्षेत्र नियत होगा, परन्तु भवान्तरों का क्षेत्र नियत नहीं हो सकता है। एक ही जीव चाहे वहाँ उत्पन्न हो सकता है। दूसरी बात यह भी है कि निगोद जीवों की अपेक्षा से सर्वलोक ही भरा हुआ है। सिद्ध जीवों का ऐसा भ्रमण सर्वत्र नहीं हो सकता है: इसलिए उनका निवास-क्षेत्र सदा के लिए नियत हो जाता है।
जीवों के भंग
सामान्यादेकधा जीवो, बद्धो मुक्तस्ततो द्विधा।
स एवासिद्धनो-सिद्ध सिद्धत्वात्कीर्त्यते त्रिधा॥ 234॥ अर्थ-उपयोग को लक्षण मानकर जीव का विचार किया जाए तो जीव एक ही प्रकार का है। उपयोग लक्षण सभी का समान है। संसारी तथा मुक्त ऐसे दो भेद भी होते हैं। संसारी, जीवन्मुक्त, कर्ममुक्त, ऐसे तीन भेद भी होते हैं, अथवा मिथ्यादृष्टि को असिद्ध कहना चाहिए; सम्यग्दृष्टि को पत्सिद्ध कहना चाहिए और रत्नत्रय प्राप्त जीव को सिद्ध कहना चाहिए-ऐसे भी तीन भेदों की योजना बनती है।
श्वाभ्र-तिर्यङ्-नरामर्त्यविकल्पात् स चतुर्विधः। प्रशम-क्षय-तद्वन्द्व-परिणामोदयोद्भवात्॥ 235॥
भावात् पञ्चविधत्वात्स पञ्चभेदः प्ररूप्यते। (षट्पदम्) अर्थ-नारक, देव, मनुष्य, तिर्यंच इन गतियों के भेद से देखा जाए तो चार प्रकार के जीव हो सकते हैं। उपशम, क्षय, क्षयोपशम, परिणाम तथा उदय-ये पाँच स्वभाव जीवों में मिलते हैं, इसलिए जीव पाँच प्रकार के भी मानने चाहिए।
षण्मार्गगमनात् षोढा सप्तधा सप्तभंगतः। 236॥ अष्टधाऽष्टगुणात्मत्वादष्टकर्मकृतोऽपि च। पदार्थनवकात्मत्वात् नवधा दशधा तु सः।
दशजीवभिदात्मत्वादिति चिन्त्यं यथागमम्॥ 237॥ (षट्पदम्) अर्थ-गमन का अर्थ ज्ञान है और जानने के साधन का नाम मार्ग हो सकता है। छह इन्द्रियों के द्वारा जीव ज्ञान उत्पन्न करते हैं अथवा विषयों में प्रवृत्ति करते हैं इसलिए एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय (असंज्ञी) तथा समनस्क ऐसे छह भेद भी जीवों में हो सकते हैं। ___ 1. स्याज्जीवोऽस्ति', 2. स्याज्जीवो नास्ति, 3. स्याज्जीवोऽस्तिनास्ति, 4. स्याज्जीवोऽवक्तव्यः, 5. स्याज्जीवोऽस्त्यवक्तव्यः, 6. स्याज्जीवो नास्त्यवक्तव्यः, 7. स्याज्जीवोऽस्तिनास्ति चावक्तव्यः-इन सात भंगों से जीव को सात प्रकार का भी कह सकते हैं।
1. सप्तभंगी का स्वरूप अभी कहने वाले हैं।
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