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द्वितीय अधिकार :: 103 विमानसंख्या है। विदिशाओं के विमानों को प्रकीर्णक या पुष्पप्रकीर्णक कहते हैं। त्रेसठवें पटल में चार दिशाओं में चार और मध्य में एक इन्द्रक विमान ऐसे पाँच विमान हैं। प्रकीर्णक विमान इस अन्तिम पटल में नहीं हैं। इसके पाँचों विमानों के विजयादिक नाम ऊपर बताये हैं।
ऊपर-नीचे के देवों में अन्तर क्या हैं?
एषु वैमानिका देवा जायमानाः स्वकर्मभिः। द्युति-लेश्याविशुद्धयायुरिन्द्रियावधिगोचरैः ।। 231॥ तथा सुख-प्रभावाभ्यामुपर्युपरितोऽधिकाः।
हीनास्तथैव ते मान-गति-देह-परिग्रहैः ॥ 232॥ अर्थ-इन विमान या पटलों में देव अपने-अपने कर्म के अनुसार ऊपर-नीचे उत्पन्न होते हैं। इन देवों में ऊपर-ऊपर द्युति, लेश्याविशुद्धि, आयु, इन्द्रियज्ञान, अवधिज्ञान, सुख तथा प्रभाव ये बढ़ते हुए होते हैं और मानकषाय, गमन, शरीरप्रमाण, परिग्रह-ये सब घटते हुए होते हैं।
___ मानकषाय' नीचे के देवों की जैसी होती है, वैसी ऊपर-ऊपर नहीं है। ऊपर-ऊपर के देव अपने स्थान छोड़कर इधर-उधर कम फिरते हैं। शरीर की ऊँचाई उत्तरोत्तर कम है-यह बात पहले कह चुके हैं। विषयलोलुपता एवं कषायमन्द होने से ऊपर-ऊपर परिग्रह का संग्रह भी कम रहता है।
शरीर का तेज' उत्तरोत्तर अधिक होता है। भवनवासी, व्यन्तर तथा ज्योतिष्कों की लेश्या कृष्ण, नील, कपोत, पीत इन चार तक रहती हैं अर्थात् शरीर के वर्ण ऐसे ही होते हैं। वैमानिक देवों में से सौधर्म, ईशान इन दो स्वर्गवालों में पीतलेश्या रहती है। तीसरे, चौथे स्वर्गों में कुछ पीत कुछ पद्म ये दो लेश्यावाले देव हैं। पाँचवें से आठवें तक पद्मलेश्या है, उससे ऊपर बारहवें तक पद्म और शुक्ल दोनों ही लेश्याएँ हैं। तेरहवें से ऊपर के सब देवों में केवल शुक्ल लेश्या ही पाई जाती है।
संसारी व सिद्धों का क्षेत्र
इति संसारिणां क्षेत्रं सर्वलोकः प्रकीर्तितः। सिद्धानां तु पुनः क्षेत्रमूर्ध्वलोकान्त इष्यते ॥ 233॥
1. प्रतनुकषायाल्पसंक्लेशावधिविशुद्धितत्त्वावलोकनसंवेगपरिणामानामुत्तरोत्तराधिक्यादभिमानहानिः । (रा.वा. 4/21) 2. देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः कायपरिस्पन्दः । वही 3. लोभकषायस्योदयान्मूर्छा परिग्रहः। वही 4. शरीरवसनाभरणादिदीप्तिद्युतिः। सर्वा. सि., वृ. 481 5. ये सर्व लेश्याएँ शरीर के वर्ण विशेष हैं। जो परिणामों में कषाय की हीनाधिकतावश भावलेश्याएँ होती हैं वे क्षणक्षण में बदल
सकती हैं। इसलिए यद्यपि उनके विषय का कुछ निश्चय वर्णन नहीं हो सकता तो भी भावलेश्या प्राय: द्रव्यलेश्याओं के अनुसार
ही रहती हैं। 6. आयु की उत्तरोत्तर अधिकता बता चुके हैं। इन्द्रियों की तथा अवधिज्ञान की मर्यादा देवों में कहाँ तक बढ़ती है यह बात राजवार्तिक
से मालूम हो सकती है। हाँ अवधि का प्रथम भेद देशावधि ही देवों में होता है। सर्वावधि, परमावधि साधुओं के सिवाय कहीं नहीं रहता।
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