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88 :: तत्त्वार्थसार
अपने पूर्वकृत दुष्कर्मों का फल इसी प्रकार अपनी पूरी आयुपर्यन्त भोगते हैं। उनका आयु कर्म भी अति विशाल रहता है। इनके जघन्य व उत्कृष्ट आयु का प्रमाण पहले ही कह चुके हैं। मध्यलोक का स्वरूप
मध्यभागे तु लोकस्य, तिर्यक्प्रचयवर्द्धिनः । असंख्याः शुभनामानो भवन्ति द्वीपसागराः॥ 187॥ जम्बूद्वीपोऽस्ति तन्मध्ये, लक्षयोजनविस्तरः।
आदित्यमण्डलाकारो बहुमध्यस्थ मन्दरः॥ 188॥ अर्थ-लोक के ऊपर, नीचे के भाग छोड़कर जो मध्य का भाग है उसमें तिरछे चारों तरफ पसरे हुए असंख्यातों द्वीप व समुद्र हैं। नाम सभी के ऐसे हैं जो सुनने में मधुर लगते हैं। सबके बीच में पहला जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीप का व्यास अर्थात् एक किनारे से दूसरे सामने के किनारे तक का विस्तार एक लाख योजन का होता है। सूर्यमंडल के समान वह गोल है। उसके ठीक बीच में सुमेरु नाम का पर्वत है। द्वीप-समुद्रों की रचना
द्विगुणद्विगुणेनातो विष्कम्भेणार्णवादयः।
पूर्वं पूर्वं परिक्षिप्य वलयाकृतयः स्थिताः॥ 189॥ अर्थ-इस जम्बूद्वीप के बाद क्रम से समुद्र व द्वीप, एक-दूसरे को घेर कर पड़े हुए हैं। इस द्वीप से आगे के सभी द्वीप व समुद्रों का विस्तार पूर्वपूर्व के द्वीप तथा समुद्रों से दूना-दूना है। द्वीप के बाद एक महासमुद्र रहता है और समुद्र के बाद एक महाद्वीप रहता है। इस प्रकार जब कि एक दूसरे को घेरकर समुद्र व द्वीपों की रचना है तो जम्बूद्वीप के सिवाय सभी की आकृति कंकण (चूड़ी) के तुल्य हुई। कुछ क्रमवर्ती द्वीपसमुद्रों के नाम
जम्बूद्वीपं परिक्षिप्य, लवणोदः स्थितोऽर्णवः। द्वीपस्तु धातकीखण्डः तं परिक्षिप्य संस्थितः॥ 190॥ आवेष्ट्य धातकीखण्डं स्थितः कालोदसागरः। आवेष्ट्य पुष्करद्वीपः स्थितः कालोदसागरम्॥ 191॥ परिपाट्यानया ज्ञेयाः स्वम्भूरमणोदधिः।
यावज्जिनाज्ञया भव्यैरसंख्या द्वीपसागराः ॥ 192॥ अर्थ-जम्बूद्वीप को बेढ़कर रहनेवाले प्रथम समुद्र का नाम लवणोद है। इस लवणोद को बेढ़कर रहनेवाला धातकीखंड द्वीप है। धातकीखंड का घेरा देकर कालोद समुद्र पड़ा हुआ है। कालोद सागर का घेरा देकर रहनेवाला पुष्करद्वीप है। इसी प्रकार स्वयंभूरमण नाम अन्तिम समुद्र पर्यन्त असंख्यातों द्वीप
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