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92 :: तत्त्वार्थसार
नदी, पर्वतों का विशेष स्वरूप :
भरत क्षेत्र में एक पर्वत पूर्व-पश्चिम की तरफ समुद्रपर्यन्त और भी है, उसे विजयार्ध कहते हैं । भरत के छह खंडों में से तीन खंड विजयार्ध के उत्तर की तरफ हैं । चक्रवर्ती सम्राट् कोई तभी बन पाता है जब इन छहों खंडों पर विजय प्राप्त कर ले। उत्तर के उन तीन खंडों पर जब तक विजय न तब तक चक्रवर्ती अर्धविजयी ही कहलाएगा। उस अर्ध विजय का विभाग दिखाने वाला है, वह पर्वत इसीलिए उसे विजयार्ध कहते हैं । विजयाद्रि तथा रजताद्रि भी इसके नाम हैं। इसमें उत्तर - दक्षिण की तरफ मुख युक्त दो गुफाएँ हैं । उनमें से निकलकर क्षेत्र में बहती हुई गंगा-सिन्धु नदी पूर्व-पश्चिम की तरफ समुद्र में मिल जाती हैं। विजयार्ध के उत्तर भाग में इन दो नदियों के प्रवाह से तीन हिस्से हो जाते हैं और दक्षिण भाग भी तीन हिस्से हो जाते हैं । इन्हीं छह हिस्सों को भरत के छह खंड कहते हैं । विजयार्ध उत्तर के तीन खंड तथा दक्षिण में आजूबाजू के दो खंड - ये पाँच खंड म्लेच्छखंड कहलाते हैं। बीच का एक आर्य खंड है। भरत के पश्चिम, दक्षिण, पूर्व दिशाओं में सर्वत्र समुद्र है और उत्तर में कुलपर्वत है । जम्बूद्वीप के सातवें क्षेत्र में भी ऐसी ही खंडों की रचना है।
पहले व सातवें क्षेत्र में अतिरिक्त बीच के पाँचों ही क्षेत्रों में एक-एक गोल पर्वत है। दूसरे हेमवत क्षेत्र में जो गोल पर्वत है उसका नाम शब्दवद्वृत्तवेदाढ्य है । हिमवान् पर्वत के पद्महद में से दो नदियाँ तो निकलकर भरतक्षेत्र में आयी हैं और एक चौथी रोहितास्या नदी निकलकर इस दूसरे क्षेत्र में बहती . है । वह नदी वृत्तवेदाढ्य पर्वत की आधी-सी प्रदक्षिणा देती हुई पश्चिम समुद्र को चली जाती है। इस क्षेत्र की उत्तर सीमा पर जो महाहिमवान् है उस पर के हद में से तीसरी नदी निकलकर वृत्तवेदाढ्य की आधी-सी प्रदक्षिणा देकर पूर्व समुद्र में चली जाती है। तीसरे क्षेत्र की भी यही स्थिति है । दोनों सीमाओं के दूसरे-तीसरे पर्वतवर्ती हदों में से छठी, पाँचवीं नदी निकलकर वृत्तवेदाढ्य नाम मध्यवर्ती गोल पर्वत की आधी-आधी प्रदक्षिणा देकर पश्चिम के व पूर्व के समुद्रों में जाकर मिल जाती हैं। इन दूसरे-तीसरे क्षेत्रों में जघन्य व मध्यम भोगभूमि मानी गयी है।
चौथा क्षेत्र विदेह है। विदेह के गोल पर्वत को सुमेरु कहते हैं । सुमेरु के उत्तर, दक्षिण भागों में उत्कृष्ट भोगभूमि है । पूर्व, पश्चिम दिशाओं में बत्तीस देश कर्मभूमि के हैं । इन्हीं को बत्तीस विदेह कहते हैं। इनमें एक-एक विजयार्ध व दो-दो उपसीता पूर्व की तरफ तथा सीतोदा पश्चिम की तरफ समुद्र में जा मिलती हैं।
पाँचवें, छठे क्षेत्र में दो-दो नदियाँ, एक-एक पर्वत - ये सब तीसरे - दूसरे क्षेत्र के समान हैं और वे क्षेत्र मध्यम व जघन्य भोगभूमि हैं। विशेष रचना त्रिलोकसार, राजवार्तिकादि ग्रन्थों में से देखनी चाहिए ।
भरत, ऐरावत में हानिवृद्धि का हेतु
उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ षट्समे वृद्धि हानिदे ।
भरतैरावतो मुक्त्वा नान्यत्र भवतः क्वचित् ॥ 208 ॥
अर्थ — पहला क्षेत्र भरत तथा सातवाँ क्षेत्र ऐरावत- इन दोनों में कालचक्र के फेर से आयुः, शरीर, शक्ति सभी बातों की हानि - वृद्धि होती रहती है । वृद्धि के कालचक्र को उत्सर्पिणी व ह्रास करनेवाले
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