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100 :: तत्त्वार्थसार
पर नक्षत्रों का भ्रमण है। नक्षत्रों के ऊपर तीन योजन जाने पर बुध के विमान भ्रमण करते हैं। बुध से तीन योजन ऊपर शुक्र हैं। शुक्र से तीन योजन ऊँचे गुरु या वृहस्पति हैं। गुरु से चार योजन ऊँचे मंगल ग्रह हैं। मंगल से चार योजन ऊँचे शनैश्चर विमान विचरते हैं। इस प्रकार यह ज्योतिश्चक्र एक सौ एक योजन ऊपर से नीचे तक मोटे आकाश में है। तिरछी तरफ में देखें, तो मध्यलोक के अन्तिम घनोदधिपर्यन्त यावत् द्वीप-समुद्रों के ऊपर सर्वत्र आकाश में ये ज्योतिष्क मिलेंगे।
इनके फिरने की अलग-अलग असंख्यात परिधि हैं। अभिजित् नाम का एक नक्षत्र है। उसकी परिधि सब परिधियों के भीतर है और मूल नाम के नक्षत्र की परिधि सबसे बाहरी है। शेष ज्योतिष्क यथायोग्य परिधियों में रहते व फिरते हैं। भरणी नक्षत्र सबके नीचे विचरता है और स्वाति सबसे ऊपर। इसी प्रकार दूसरों के यथायोग्य बीच में स्थान हैं।
सूर्य-विमान की कान्ति तप्त स्वर्ण के समान है। उसकी मणिमय अकृत्रिम रचना है। अड़तालीस बटे इकसठ योजना (48/61) प्रमाण इस सूर्य विमान का व्यास है। कुछ इससे अधिक तिगुनी परिधि है। इसकी मोटाई अपने विमान के विस्तार से आधी है। इसकी आकृति आधे गोले की तरह है। सोलह हजार सेवक देव इसको धारण करते हैं। इन विमानों में सूर्यनाम का देव स्वामी रहता है और उसके परिवारजन भी रहते हैं। यह सूर्य का स्वरूप है। बाकी सबका यथागम से समझ लेना चाहिए।
भवनवासी आदि देवों में जैसे असुरादि भेद होते हैं और उन प्रत्येक भेदों में इन्द्र, सामानिक आदि की कल्पना की गयी है, वैसी ज्योतिष्कों के पाँचों भेदों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल की कल्पना नहीं है। ये पाँच भेद केवल हीनाधिक प्रभाव, शक्ति, ऐश्वर्य इत्यादि हेतुवश माने गये हैं। इन्द्रादिक भेदों की अपेक्षा से देखें तो चन्द्र इन्द्र है और सूर्य प्रतीन्द्र है। ऐसा सूर्य चन्द्रादिकों का समुदाय अलगअलग एक-एक देखें तो असंख्यात हैं। जम्बूद्वीप के ऊपरी भाग में दो चन्द्र, दो सूर्य तथा प्रत्येक के अलग-अलग परिवार हैं। लवणोद समुद्र के ऊपर चार सूर्य तथा चार चन्द्र हैं। इसके आगे प्रति द्वीप तथा प्रति समुद्र के ऊपर दूने-दूने समझने चाहिए। अढ़ाई द्वीप के आगे दूने का हिसाब नहीं है।
अढ़ाई द्वीपों के भीतर रहनेवाले ज्योतिष्क जो भ्रमते हैं सुमेरु की प्रदक्षिणा देते हुए भ्रमण करते हैं। अढ़ाई द्वीप के आगे के सभी ज्योतिष्क स्थिर हैं। उनकी गति एक-सी होती है। वैमानिक देवों के निवास-स्थान
ये तु वैमानिका देवा, ऊर्ध्वलोके वसन्ति ते।
उपर्युपरि तिष्ठत्सु विमानप्रतरेष्विह ॥ 225॥ अर्थ-देवों का चौथा भेद वैमानिक है। ये देव ज्योतिष्क देवों से बहुत ऊँचे रहते हैं। ज्योतिष्क देवों का निवास मध्यलोक में गिना जाता है और वैमानिक जहाँ से शुरू होते हैं, वह ऊर्ध्वलोक है। सुमेरु की शिखा के ठीक ऊपर से वैमानिकों के आवास तथा ऊर्ध्वलोक की स्थिति शुरू होती है। ऊपर ऊपर स्वर्ग और स्वर्गों के अन्तर्गत प्रतरों की रचना है, उन्हीं में ये वैमानिक देव रहते हैं।
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