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द्वितीय अधिकार :: 95 हैं। 4. मोक्षसाधनीभूत चारित्र की जिन्हें जितनी प्राप्ति हुई हो वे उतने अंशों में चारित्रार्य कहलाते हैं। असावध कार्य तथा चारित्रार्य-ये दोनों ही साधु होते हैं, परन्तु पुण्य कर्म का जब वे बन्धन करते हैं तब असावद्य कार्य कहलाते हैं और जब कर्मों की निर्जरा करते हैं तब वे ही चारित्रार्य कहलाते हैं। 5. सम्यग्दर्शन के धारियों को दर्शनार्य कहते हैं। ऋद्धियों के द्वारा भी आर्य नाम विशेषता से प्राप्त होता है। बुद्धिऋद्धि, क्रियाऋद्धि, तपऋद्धि, बलऋद्धि, औषधऋद्धि, रसऋद्धि, क्षेत्रऋद्धि, विक्रियाऋद्धि ये आठ ऋद्धियाँ हैं। ये साधुओं को प्रकट होती हैं।
कर्मभूमि और भोगभूमि : जहाँ राज्य करके, व्यापार करके, खेती करके, विद्या सिखाकर तथा सेवा करके पेट भरना हो वहाँ कर्मभूमि कही जाती हैं। कर्मभूमि का एक ऐसा भी अर्थ किया है कि संसार से छूटने का जहाँ मार्ग जारी हो उसे कर्मभूमि कहना चाहिए अथवा सर्वाधिक पुण्य-पाप कर्मों का जहाँ बन्धोदय होता हो वे कर्मभूमि समझनी चाहिए। ऐसा जहाँ न हो वे भोगभूमि हैं। यह सब कल्पना, भेद मनुष्यों की मुख्यता से किये गये हैं।
जम्बूद्वीप में, एक भरत दूसरा ऐरावत ये दो आद्यन्त क्षेत्र तथा बत्तीस विदेहवर्ती क्षेत्र इस प्रकार चौंतीस कर्मभूमि हैं। धातकीखंड में तथा आधे पुष्कर में दूनी-दूनी हैं। इसलिए 34+68+68=170 कर्मभूमियाँ होती हैं। विदेहक्षेत्र में बत्तीस कर्मभूमि इस प्रकार होती हैं कि, विदेह के बीच सुमेरु पर्वत है। उसकी आधी-आधी प्रदक्षिणा देकर सीता तथा सीतोदा ये दो महानदी विदेहक्षेत्र के बीचोंबीच बहती हुई पूर्व, पश्चिम समद्रपर्यन्त जाती हैं, इसलिए मेरु के दोनों तरफ पूर्व-पश्चिम दिशाओं में दो-दो भाग हो जाते हैं। उन दो भागों के भी आठ-आठ टुकड़े करनेवाले चार पर्वत तथा तीन नदियाँ ये कारण हैं। ये सातों उत्तर-दक्षिण की तरफ फैले हुए हैं। प्रथम, त्रिकूट तथा दूसरा, वैश्रवणकूट इन दो पर्वतों के बीच एक विभंगनदी है। दूसरे के बाद दूसरी विभंगनदी है और फिर तीसरा अंजन नाम का पर्वत है। इसके आगे तीसरी विभंगनदी और फिर चौथा आत्मांजन नाम का पर्वत है। चार पर्वत तथा तीन नदियाँ, इन सबके अन्त में समुद्र के पास तथा आदि में सुमेरु के पास एक-एक वेदी है। इस प्रकार नौ पर्वतों के बीच आठ क्षेत्र हैं। ये भेद सीता नदी के दक्षिण भागवाले क्षेत्र तथा पर्वत-नदियों के हैं। इसी प्रकार सीता के उत्तर में आठ और सीतोदा नदी के दोनों तरफ आठ-आठ मिलाने से बत्तीस कर्मभूमियाँ होती हैं। इन सर्व पर्वतादिकों के नाम दूसरे-दूसरे हैं। इन बत्तीसों कर्मभूमियों में भरत-ऐरावत की तरह छह-छह खंड होते हैं। वहाँ के जो चक्रवर्ती होते हैं वे इन एक-एक क्षेत्रवर्ती छह-छह खंडों के उपभोक्ता होते हैं। यहाँ भी छह खंड होने के कारण एक-एक विजयार्ध तथा दो-दो नदियाँ हैं। यह सब विदेह का वर्णन है।
1. प्रकृष्टशुभाशुभकर्मोपार्जननिर्जराधिष्ठानोपपत्तेः कर्मभूमयः। प्रकृष्टं शुभकर्म सर्वार्थसिद्धिसौख्यप्रपकं तीर्थंकरत्वमहाद्धिनिर्वर्तकं,
प्रकृष्टमशुभं कर्म कलंकपृथ्वीमहादुःखप्रापकं कर्मभूमिष्वेवोपाय॑ते, संसारकारणनिर्जराकर्म चात्रेव प्रवर्तते। षट्कर्मदर्शनाच्च
असिमषिकृषिविद्यावणिशिल्पानामत्रैव दर्शनाच्च कर्मभूमिव्यपदेशो भरतादिष्वेव युक्तिमान् ॥ रा.वा. 3/37, वा. 2 2. सीताया नद्या पूर्वविदेहो द्विधा विभक्त उत्तरो दक्षिणश्च । तत्रोत्तरो भागश्चतुर्भिर्वक्षारपर्वतैस्तिसृभिर्नदीभिर्विभक्तोष्टधा भिन्नः ।
सीताया दक्षिणतः पूर्वविदेहश्चतुर्भिर्वक्षारपर्वतैस्तिसृभिश्च विभंगनदीभिर्विभक्तोष्टधा भिन्न अष्टभिश्चक्रधरैरुपभोग्यः । सीतोदया महानद्यऽपरविदेहो द्विधा विभक्तो दक्षिण उत्तरश्च। तत्र दक्षिण उत्तरश्च (प्रत्येक)भागश्चतुर्भिर्वक्षारपर्वतैस्तिसृभिर्विभंगनदीभिश्च विभक्तोष्टधा भिन्नः। (एवं द्वात्रिंशद्विदेहाः) रा.वा. 3/10, वा. 13
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