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64 :: तत्त्वार्थसार
तैजस, वैक्रियिक की विशेषता
औदारिक शरीरस्थं लब्धिप्रत्ययमिष्यते।
अन्यादृक् तैजसं साधोपुर्वैक्रियिकं तथा॥76॥ अर्थ-तपोबल के विशेष सामर्थ्य से किसी-किसी साधु के औदारिक शरीर में स्वाभाविक तैजस व वैक्रियिक की अपेक्षा विलक्षण तैजस व वैक्रियिक शरीर भी उत्पन्न हो जाते हैं। तैजस तो पहले से ही रहता है, परन्तु वह तैजस बाहर अलग प्रकट कभी नहीं होता और तपोबल विशेष से प्राप्त होनेवाला तैजस दुर्भिक्ष मिटाने या किसी को भस्म करने के अभिप्राय से बाहर निकल आता है। औदारिक शरीर के साथ वैक्रियिक नहीं रह सकता। इसका एक यह भी हेतु है कि औदारिक के साथ आहारक रहने से तो युगपत् चार शरीर बताये गये हैं, परन्तु वैक्रियिक के रहने से कहीं पर चार का उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार यह भी एक नियम है कि मनुष्यों में वैक्रियिक कर्म का उदय नहीं होता। इस युक्ति से जब कि तपोबल द्वारा प्राप्त हुआ वैक्रियिक शरीर वास्तविक औदारिक ही मानना चाहिए तो तैजस भी जो तपोबल से प्राप्त हुआ हो उसे औदारिक शरीर में ही गिनना युक्त है। केवल तेज:पुंज होने से तैजस व विक्रिया करने वाला होने से वैक्रियिक नाम प्राप्त हो जाते हैं।
औदारिक, वैक्रियिक के उत्पत्तिस्थान
औदारिकं शरीरं स्याद् गर्भसम्मूर्छनौद्भवम्।
तथा वैक्रियिकाख्यं तु जानीयादौपपादिकम्॥77॥ अर्थ-तैजस व कार्मण शरीर तो सभी जीवों को सदा ही बँधते रहते हैं, परन्तु औदारिक शरीर गर्भ तथा सम्मूर्छन जन्मों द्वारा उत्पन्न होता है। वैक्रियिक शरीर की उत्पत्ति उपपाद जन्म से जाननी चाहिए।
आहारक का स्वरूप
अव्याघाती शुभ: शुद्धः प्राप्तर्द्वर्यः प्रजायते।
संयतस्य प्रमत्तस्य स स्यादाहारकः स्मृतः॥78॥ अर्थ-आहारक शरीर उत्पन्न करनेवाली तथा इतर ऋद्धियाँ प्राप्त होने पर तपस्वी के शरीर से कभी-कभी एक शरीर उत्पन्न होता है उसे आहारक शरीर कहते हैं। वह शरीर तब उत्पन्न होता है जबकि तपस्वी को किसी सूक्ष्म तत्त्व के विषय में ऐसी शंका उत्पन्न हो गयी हो जो केवली या श्रुतकेवली के
1. 'अपरस्य त्रीणि औदारिकतैजसकार्मणानि। अन्यस्य चत्वारि औदारिकाहारकतैजसकार्मणनि। इति विभागः क्रियते।' (सर्वा.सि.,
वृ. 345)। तैजस योग का कारण नहीं है परन्तु पृथक् तैजस जो साधुओं को प्राप्त होता है उसे योग का निमित्त क्यों न मानें?
इस आशंका का उत्तर भी यही हो सकता है कि वह तैजस यद्यपि योगनिमित्त होगा तथापि वह वास्तविक औदारिक ही है। 2. खल्वाहरकः, पाठान्तरम्।
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