________________
72 :: तत्त्वार्थसार
देहान्तर के लिए गति होने का हेतु
जीवस्य विग्रह - गतौ, कर्मयोगं जिनेश्वराः । प्राहुर्देहान्तरप्राप्तिः कर्मग्रहण-कारणम् ॥ 97 ॥
अर्थ - योगों की चंचलता उत्पन्न हुए बिना शरीर सम्बन्धी कुछ भी हीनाधिकता नहीं हो पाती, इसलिए विग्रहगति में भी कोई योग होना चाहिए । विग्रहगति में कर्मबन्धन का कार्य व दूसरे शरीर की जगह तक पहुँचने का कार्य, ये दो कार्य होते हैं जो कि किसी योग की अपेक्षा रखते हैं । दूसरा, कोई योग वहाँ सम्भव नहीं होता, इसलिए उक्त दोनों कार्यों का साधन कार्मणकाय योग ही है - ऐसा जिनेश्वर भगवान् ने कहा है । आठ कर्मों के पिंड का नाम कार्मण शरीर है। इसी का अवलम्बन लेकर आत्मा वहाँ उक्त दोनों कार्य करता है ।
विग्रहगति का मार्ग
जीवानां पञ्चताकाले यो भवान्तरसंक्रमः ।
मुक्तानां चोर्ध्वगमनमनुश्रेणिगतिस्तयोः ॥ १8 ॥
अर्थ - जीवों का मरते समय जो भवान्तर की तरफ गमन होता है तथा जो मुक्त होने पर ऊर्ध्वगमन होता है, वे दोनों गमन आकाश प्रदेशों की श्रेणी के अनुकूल होते हैं । आकाश प्रदेशों की रचना दिशाओं के अनुकूल रहती है, इसलिए दिशानुकूल ही गमन होता है ।
विग्रहगति के भेद
सविग्रहाऽविग्रहा च सा विग्रहगतिर्द्विधा ।
अविग्रहैव मुक्तस्य शेषस्यानियमः पुनः ॥ 99 ॥
अर्थ - विग्रह शब्द का जैसा शरीर अर्थ है वैसा मुड़ना तथा अग्रहण भी अर्थ होता है । विग्रहगति मुड़कर भी होती है और बिना मुड़े भी होती है। मुक्त जीवों का बिना मुड़े ही ऊर्ध्वगमन होता है । संसारी a का एक नियम नहीं है। किसी की गति मुड़कर भी होती है और किसी की बिना मुड़े ही हो जाती है।
Jain Educationa International
विग्रहगतियों के कालनियम तथा नाम
अविग्रहैकसमया कथितेषुगतिर्जिनैः ।
अन्याद्विसमया प्रोक्ता पाणिमुक्तैकविग्रहा ॥ 100 ॥ द्विविग्रहां त्रिसमयां प्राहुर्तांगलिकां जिना: । गोमूत्रिका तु समयैश्चतुर्भिः स्यात् त्रिविग्रहा ॥ 101॥
अर्थ - बिना मोड़े की गति दूसरे नवीन शरीर तक एक समय में ही हो जाती है। उसका नाम जिनेश्वरदेव ने इषुगति कहा है। एक मोड़ेवाली दूसरी गति में दो समय लगते हैं, इसका नाम पाणिमुक्ता है। लांगलिका तीसरी गति का नाम है। इसमें तीन समय व दो मोड़े लगते हैं। चौथी का नाम गोमूत्रिका
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org