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द्वितीय अधिकार :: 75 हैं। वनस्पति की दश लाख हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय में से प्रत्येक की दो-दो लाख होने से समस्त विकलेन्द्रियों की छह लाख हैं। मनुष्यों की चौदह लाख, पंचेन्द्रिय तिर्यंच व नारक, देव इन में से प्रत्येक की चार-चार लाख हैं। इस प्रकार सर्व जीवों की योनि चौरासी लाख हैं।
कुलों की संख्या
द्वाविंशतिस्तथा सप्त, त्रीणि सप्त यथाक्रमम्। कोटी लक्षाणि भूम्यम्भः तेजोऽनिलशरीरिणाम्॥ 112॥ वनस्पतिशरीराणां तान्यष्टाविंशतिस्तथा (स्मृताः)। स्युर्द्वित्रिचतुरक्षाणां सप्ताष्ट नव च क्रमात्॥ 113 ॥ तानि द्वादश सार्दानि भवन्ति जलचारिणाम्। नवाऽहिपरिसर्पाणां गवादीनां तथा दश॥ 114॥ वीनां द्वादश तानि स्युश्चतुर्दश नृणामपि। षड्विंशतिः सुराणां तु श्वाभ्राणां पञ्चविंशतिः॥ 115॥ कुलानां कोटिलक्षाणि नवतिर्नवभिस्तथा।
पञ्चायुतानि कोटीनां कोटी कोटी च मीलनात्॥ 116॥ अर्थ-जिस स्थान अथवा पर्याय में रहकर उत्पत्ति हो उस आधार को योनि कहते हैं और जो परमाणु स्वयं जीव के शरीरमय परिणमते हों उसे कुल कहते हैं। यही कुल तथा योनि में भेद है। योनियों के प्रकार ऊपर कहे जा चुके हैं। अब यहाँ कुल गिनाते हैं।
__ भूमि के बाईस कोटिलाख, तथा जल के सात, अग्नि के तीन, वायु के सात, वनस्पति के अट्ठाईस, द्वीन्द्रिय के सात, त्रीन्द्रिय के आठ, चतुरिन्द्रिय के नौ, पंचेन्द्रिय जलचर तिर्यंचों के साढ़े बारह, भूमि के भीतर रहनेवाले सर्पादिकों के नौ, गौ आदि पशुओं के दश, पक्षियों के बारह, मनुष्यों के चौदह और देवों के छब्बीस, नारकों के पच्चीस कोटि लाख-इस प्रकार एक-एक जाति के जीवों के कुल समझने चाहिए। सर्व जाति के कुलों के सर्व कोटिलक्ष जोड़ने से एक कोटा-कोटी, निन्यानवे कोटि लाख व पचास लाख 'कुल' होते हैं। यानि एक सौ साढ़े निन्यानवे लाख कोटा-कोटी कुल होते हैं। एकेन्द्रियों और तिर्यंचों की उत्कृष्ट आयु
द्वाविंशतिर्भुवां सप्त पयसां दश शाखिनाम्। नभस्वतां पुनस्त्रीणि वीनां द्वासप्ततिस्तथा ॥ 117॥ उरगाणां द्विसंयुक्ता चत्वारिंशत् प्रकर्षतः।
आयुर्वर्षसहस्त्राणि सर्वेषां परिभाषितम्॥ 118॥ अर्थ- भूमि की बाईस हजार वर्ष, जल की सात हजार, वनस्पति की दश हजार, वायु की तीन हजार, पक्षियों की बहत्तर हजार, सर्पो की ब्यालीस हजार वर्ष-इस प्रकार इन सबों की उत्कृष्ट आयु समझना चाहिए।
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