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68 :: तत्त्वार्थसार
अर्थ-भावरूप और द्रव्यरूप इस तरह लेश्या दो प्रकार की मानी जाती है। कषायोदयमिश्रित योगप्रवृत्ति को भावलेश्या कहते हैं। शरीरनामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई शरीरकान्ति को द्रव्यलेश्या कहते हैं।
कृष्णा नीला च कापोता पीता पद्मा तथैव च।
शुक्ला चेति भवत्येषा द्विविधापि हि षड्विधा॥ 89॥ अर्थ- उक्त दोनों ही लेश्याओं के कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये छह-छह भेद होते हैं। भावलेश्या के प्रकरण में सब रंगों का यह अर्थ लेना चाहिए कि आत्मभावों की हीनाधिक मलिनता तथा निर्मलता के सूचक ये छह उदाहरण नाम हैं। द्रव्य लेश्या के विषय में ये छहों शरीरवर्गों के नाम हैं। भावलेश्या सर्वत्र छहों प्रकार की मिल सकती है, परन्तु द्रव्यलेश्या एक जीव की जन्म से मरणपर्यन्त एक नहीं रहती है। द्रव्यलेश्या अलग-अलग देश के मनुष्य तथा तिर्यंचों में छहों देखने में आ सकती हैं।
भव्यत्व (ग्यारहवीं मार्गणा)
भव्याभव्यविभेदेन द्विविधाः सन्ति जन्तवः।
भव्याः सिद्धत्वयोग्याः स्युर्विपरीतास्तथा परे॥१०॥ अर्थ- भव्य तथा अभव्य इस प्रकार जगत् के जीवों के दो रूप हैं। सिद्धि जिन्हें प्राप्त हो सकती है वे भव्य कहलाते हैं। जिनकी सिद्धावस्था कभी न हो सके के अभव्य कहलाते हैं। इन स्वभावों का वर्णन पारिणामिक भावों के समय किया जा चुका है। सम्यक्त्व ( बारहवीं मार्गणा)
सम्यक्त्वं खलु तत्त्वार्थश्रद्धानं तत् त्रिधा भवेत्। स्यात् सासादनसम्यक्त्वं, पाकेऽनन्तानुबन्धिनाम्॥91॥ सम्यमिथ्यात्वपाकेन सम्यमिथ्यात्वमिष्यते।
मिथ्यात्वमुदयेनोक्तं मिथ्यादर्शनकर्मणः ॥ 92॥ अर्थ-तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं । इसके तीन मुख्य भेद हैं। पहला भेद औपशमिक है। सम्यग्दर्शन के घातक मिथ्यात्वकर्म के उदय से तथा अनन्तानुबन्धी चारों कषायों में से किसी का उदय होने से मिथ्यात्व होता है, इसलिए उपशम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति उक्त पाँचों कर्मों के उपशम से होती है। ___अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को एक बार सम्यग्दर्शन होते ही ऐसी एक शक्ति प्रकट होती है कि वह मिथ्यात्वकर्म के तीन टुकड़े कर डालती' है। पहले टुकड़े को सम्यक्त्व या सम्यक् प्रकृति कहते हैं। दूसरे, इस मिथ्यात्व के टुकड़े में सम्यग्दर्शन की घातक शक्ति इतनी क्षीण हो जाती है कि वह सम्यग्दर्शन का आधा-सा घात कर सके, इसे सम्यमिथ्यात्व कहते हैं। तीसरा, कुछ अंश फिर भी ऐसा बाकी रह 1. जंतेण कोद्दवं वा पढमुवसमसम्मभाव जंतेण। मिच्छादव्वं तु विधा असंखगुणहीणदव्वकमा ॥26 ।। (गो. क.)
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