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60 :: तत्त्वार्थसार
अग्नि के जीवों का शरीर सुइयों के पिंड के समान, वायुकायिकों का ध्वज जैसा आकार होता है। बाकी रहे वनस्पति व त्रस जीवों का शरीर किसी एक प्रकार का आकार नहीं है, इनमें अनेक आकृतियाँ मिलती हैं।
पृथिवी के प्रकार
मृत्तिका बालुका चैव शर्करा चोपल: शिला। लवणोऽयस्तथा तानं त्रपुः सीसकमेव च ॥ 58॥ रौप्यं सुवर्णं वज्रं च, हरितालं च हिंगुलम्। मनःशिला तथा तुत्थमञ्जनं सप्रवालकम्॥59॥ क्रिरोलकाभ्रके चैव मणिभेदाश्च बादराः। गोमेदो रुचकांकश्च स्फटिको लोहितप्रभः ॥ 60॥ वैडूर्यं चन्द्रकान्तश्च जलकान्तो रविप्रभः। गैरिकश्चन्दनश्चैव वर्चुरो रुचकस्तथा॥ 61॥ मोठो मसार-गल्लश्च सर्व एते प्रदर्शिताः।
षट्त्रिंशत् पृथिवीभेदा भगवद्भिर्जिनेश्वरैः। 62॥ अर्थ-1. माटी, 2. बालू, 3. धूल, 4. पत्थर, 5. शिला, 6. सेंधा नमक, 7. लोहा, 8. ताँबा, 9. रांगा, 10. सीसा, 11. चाँदी, 12. सुवर्ण, 13. हीरा, 14. हरताल, 15. ईंगुर, 16. मैनसिल, 17. तूतिया, 18. अंजन, 19. प्रवाल, 20. क्रिरोलक, 21. अभ्रक, 22. गोमेद, 23. रुचकांक, 24. स्फटिक, 25. लोहितप्रभ-पद्मराग, 26. वैडूर्य, 27. चन्द्रकान्त, 28. जलकान्त, 29. सूर्यकान्त, 30. गेरू, 31. चन्दन, 32. वर्चुर, 33. रुचक, 34. मोठ, 35. मसार और 36. गल्ल -ये सर्व मिलकर छत्तीस भेद होते हैं। मूल प्रकार जिनेश्वर भगवान ने इतने ही कहे हैं।
जलकायिक जीवों के प्रकार
अवश्यायो हिमबिन्दुः तथा शुद्धघनोदके।
शीतकाद्याश्च विज्ञेया जीवाः सलिलकायिकाः॥63॥ __ अर्थ-अवश्याय-एक प्रकार की ओस, हिमबिन्दु-एक प्रकार की ओस की बूंद, शुद्धजल, मेघजल, शीतल-ठंडक इत्यादि तथा बर्फ आदि अनेक प्रकार के जल को जलकायिक जीव समझना चाहिए।
अग्निकायिक जीवों के प्रकार
ज्वालागारः तथार्चिश्च, मुर्मुरः शुद्ध एव च।
अग्निश्चेत्यादिका ज्ञेया जीवा ज्वलनकायिकाः ॥ 64॥ अर्थ-ज्वाला, अंगार, अर्चि, मुर्मुर, शुद्ध अग्नि ये सभी अग्निकायिक जीवों के भेद हैं। इनके सिवाय और भी ऐसे बहुत प्रकार हैं जो कि अग्नि में ही गर्भित करने चाहिए।
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