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58 :: तत्त्वार्थसार
पाँचों इन्द्रियों तथा मन के विषय
स्पर्शो रसस्तथा गन्धो वर्णः शब्दो यथाक्रमम।
विज्ञेया विषयास्तेषां मनसस्तु तथा श्रुतम्॥48॥ अर्थ-स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द-ये पाँच क्रम से पाँचों इन्द्रियों के विषय हैं। मन, जो अन्तर्गत इन्द्रिय है उसका मुख्य विषय श्रुतज्ञान को उत्पन्न करना है और गौण विषय सभी इन्द्रियों को सहायता देना है।
इन्द्रियों का विषय सम्बन्ध
रूपं पश्यत्यसंस्पृष्टं स्पृष्टं शब्दं शृणोति तु।।
बद्धं स्पृष्टं च जानाति स्पर्श गन्धं तथा रसम्॥49॥ अर्थ-आत्मा चक्षु से जो रूप को देखता है वह रूप से सम्बन्ध न करता हुआ दूर रहकर ही देखता है। कानों से जो शब्द सुनाई पड़ता है वह स्पर्श होने पर सुनाई पड़ता है। शब्द का कानों के साथ संयोग हुए बिना सुनना नहीं होता। स्पर्श, रस और गन्ध तीन विषयों का ज्ञान तब होता है जब कि इन्द्रियों के साथ संयोग होकर एकमेक सरीखे विषय व इन्द्रिय एकत्रित होकर भिड़ जाते हैं। मन के द्वारा ज्ञान होता है उसमें विषय के सम्बन्ध की भी अपेक्षा नहीं होती तथा अव्यवधान की भी, नेत्र की तरह अपेक्षा नहीं होती। इन्द्रियों की आकृति
यवनाल-मसूरातिमुक्तेन्द्वर्द्धसमाः क्रमात्।
श्रोत्राक्षि-घ्राण-जिव्हाः स्युः स्पर्शनं नैकसंस्थितिः॥ 50॥ अर्थ-कानों का जौ की मध्य नली का-सा आकार है। नेत्र मसूर के तुल्य होता है। नाक तिलपुष्प के समान होती है। अर्धचन्द्र के समान जीभ का या रसनेन्द्रिय का आकार है। स्पर्शन इन्द्रिय का कोई एक आकार नियत नहीं है। शरीरों के आकार अनेक हैं, इसलिए स्पर्शनेन्द्रिय शरीराकार होने से अनेकविध
है।
जीवों में इन्द्रिय विभाग
स्थावराणां भवत्येकमेकैकमभिवर्धयेत्।
शम्बूक-कुन्थु-मधुप-मादीनां ततः क्रमात्॥ 51॥ अर्थ-पृथिव्यादि स्थावर जीवों में मात्र पहली इन्द्रिय होती है। इसके आगे शम्बूक-क्षुद्रशंख, कुन्थु, भ्रमर व मनुष्यादिकों में एक-एक इन्द्रिय क्रम से बढ़ती जाती हैं।
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