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द्वितीय अधिकार :: 57
भावेन्द्रिय, लब्धि और उपयोग का स्वरूप
लब्धिः तथोपयोगश्च भावेन्द्रियमुदाहृतम्। सा लब्धिर्बोध-रोधस्य यः क्षयोपशमो भवेत्॥44॥ स द्रव्येन्द्रिय-निर्वृत्तिं प्रति व्याप्रियते यतः। कर्मणो ज्ञान-रोधस्य क्षयोपशम-हेतुकः॥45॥ आत्मनः परिणामो य उपयोगः स कथ्यते।
ज्ञान-दर्शनभेदेन द्विधा द्वादशधा पुनः ॥ 46॥ अर्थ-भावेन्द्रिय, लब्धि और उपयोग दोनों को कहते हैं। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम का लाभ होना लब्धि है। उस आत्मा के चैतन्य परिणाम को उपयोग कहते हैं, जिसके होने से आत्मा ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम द्वारा द्रव्यनिर्वृत्ति नामक इन्द्रिय में प्रवृत्ति करने लगता है अर्थात् आत्मा इन्द्रियों द्वारा पदार्थों को तभी जान सकता है जब कि उक्त विषय के ज्ञान को घातनेवाला कर्म क्षीणोपशान्त हो गया हो और उस क्षयोपशम की सहायता से आत्मा इन्द्रियों में प्रवर्तने लगा हो। ऐसी आत्मप्रवृत्ति को उपयोग कहते हैं और घातक कर्म के क्षयोपशम को लब्धि या लाभ कहते हैं। क्षयोपशमरूप लाभ भी जब तक प्राप्त न हुआ हो तब तक ज्ञान होना असम्भव है और क्षयोपशम-लाभ होने पर भी जब तक जानने की प्रवृत्ति न की गयी हो तब तक भी ज्ञान प्रकट होना कठिन है। एकेन्द्रिय जीवों में रसनादि चार इन्द्रियों का क्षयोपशम न रहने से उन इन्द्रियों का वहाँ ज्ञान कभी नहीं होता और मनुष्यों में सभी इनि ज्ञानावरण का क्षयोपशम रहते हुए भी एक किसी इन्द्रिय-सम्बन्धी ज्ञान होते समय इतर इन्द्रियों का ज्ञान नहीं होता। ये दोनों, लब्धि व उपयोग की कारणता दिखाने के लिए उदाहरण हैं, इसीलिए दोनों को भावेन्द्रिय मानना आवश्यक है। उक्त दोनों को भावेन्द्रिय इसलिए कहते हैं कि ये द्रव्यपर्याय न होकर गुणपर्याय हैं। क्षयोपशम भी एक गुण या धर्म है और उपयोग भी एक धर्म है। धर्म, स्वभाव, भाव इत्यादि शब्दों का एक ही अर्थ होता है। उपयोग के ज्ञान और दर्शन ये दो प्रकार भी कहे जाते हैं और उत्तर भेद बारह पहले कह चुके हैं। आत्मा के परिचय का हेतु होने से उपयोग को भी इन्द्रिय कहना अयोग्य नहीं है। हाँ, व्यवहार में उन्हीं को इन्द्रिय कहते हैं जो कि नेत्रादि शरीरावयव हैं, परन्तु ज्ञानों के लिए उक्त अपेक्षा से कहा हुआ इन्द्रियनाम शास्त्रदृष्टि से अनुचित नहीं है। इन्द्रियों के नाम और क्रम
स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रमतः परम्।
इतीन्द्रियाणां पञ्चानां संज्ञानुक्रमनिर्णयः॥47॥ अर्थ-पहली स्पर्शन, दूसरी रसना, तीसरी घ्राण, चौथी नेत्र, पाँचवीं श्रोत्र-इस प्रकार इन्द्रियों के अनुक्रम से नाम हैं। एक दो आदि इन्द्रियों की वृद्धि भी इसी अनुक्रम से होती है-यह नियम है। जैसे किसी जीव में दो इन्द्रियाँ होंगी तो स्पर्शन और रसना ये ही दो होंगी, अन्य नहीं।
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