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56 :: तत्त्वार्थसार
द्रव्य इन्द्रिय के भेद
निर्वृत्तिश्चोपकरणं द्रव्येन्द्रियमुदाहृतम्। बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वैविध्यमनयोरपि ॥ 40 ॥
अर्थ - द्रव्येन्द्रिय का विचार करें तो उसमें निर्वृत्ति व उपकरण ऐसे दो प्रकार दिख पड़ते हैं । निर्वृत्ति व उपकरण भी प्रत्येक दो-दो प्रकार के होते हैं । बाह्य निर्वृत्ति, आभ्यन्तर निर्वृत्ति, बाह्य उपकरण, आभ्यन्तर उपकरण। ज्ञानोत्पत्ति में कार्यकारी जो इन्द्रिय का अंश रचा गया हो वह निर्वृत्ति समझना चाहिए। जो उस निर्वृत्ति (मुख्यांश) की रक्षा करनेवाला अवयव हो उसे उपकरण कहा जाता है।
अन्तरंग निर्वृत्ति का लक्षण
नेत्रादीन्द्रियसंस्थानावस्थितानां हि वर्तनम् । विशुद्धात्मप्रदेशानां तत्र निर्वृत्तिरान्तरा ॥ 41 ॥
अर्थ - बाह्य व आभ्यन्तर निर्वृत्तियों में से आभ्यन्तर निर्वृत्ति वह है जो कुछ आत्मप्रदेशों की रचना नेत्रादि इन्द्रियों के आकार को धारण करके उत्पन्न होती है । वे आत्मप्रदेश इतर आत्मप्रदेशों से अधिक विशुद्ध होते हैं । ज्ञान के व ज्ञानसाधन के प्रकरण में ज्ञानावरण क्षयोपशमजन्य निर्मलता को विशुद्धि कहते हैं ।
बाह्य निर्वृत्ति का लक्षण -
तेष्वेवात्मप्रदेशेषु करण- व्यपदेशिषु । नामकर्म-:
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- कृतावस्थः पुद्गलप्रचयोऽपरा ॥ 42 ॥
अर्थ- इन्द्रियाकार धारण करनेवाले अन्तरंग इन्द्रिय नामक आत्मप्रदेशों के साथ उन आत्मप्रदेशों को अवलम्बन देनेवाले जो शरीरावयव इकट्ठे होते हैं उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं । इन शरीरावयवों की इकट्ठे होकर इन्द्रियावस्था बनने के लिए अंगोपांगादि नामकर्म के कुछ भेद सहायक होते हैं ।
आभ्यन्तर और बाह्य उपकरण
आभ्यन्तरं भवेत्कृष्ण - शुक्लमण्डलकादिकम् । बाह्योपकरणं त्वक्षिपक्ष्म- पत्रद्वयादिकम् ॥ 43 ॥
अर्थ- बाह्य व आभ्यन्तर दोनों उपकरणों में से आभ्यन्तरोपकरण उसे कहते हैं जो भीतर रहकर निर्वृत्तिरूप इन्द्रिय की रक्षा करता हो । जैसे, नेत्रेन्द्रिय के भीतर काले, सफेद आदि रंग का मंडल । किसी इन्द्रिय के सबसे ऊपर की तरफ रहनेवाला रक्षा का साधन बाह्योपकरण कहलाता है । जैसे, नेत्रेन्द्रिय के ऊपर दो बरौनी । इन दोनों प्रकार के उपकरणों के भीतर जो देखने की शक्ति रखनेवाली रचना होती है वह सब 'निर्वृत्ति' नाम से कही जाती है। ये सभी उपकरण तथा निर्वृत्ति के भेद द्रव्येन्द्रिय इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि ये आत्मा के तथा पुद्गलद्रव्यों के पर्याय हैं।
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