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द्वितीय अधिकार :: 53 2. शरीरपर्याप्ति-खलभाग को हड्डी आदि कठोर अवयवरूप तथा रसभाग को खून आदि तरल अवयवरूप परिणमाने की शक्ति के पूर्ण होने को शरीरपर्याप्ति कहते हैं।
3. इन्द्रियपर्याप्ति-उसी नोकर्मवर्गणा के स्कन्ध में से कुछ वर्गणाओं को अपनी-अपनी इन्द्रियों के स्थान पर उस-उस इन्द्रिय के आकार परिणमाने की शक्ति के पूर्ण हो जाने को इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं।
4. श्वासोच्छवासपर्याप्ति-कछ स्कन्धों को श्वासोच्छवासरूप परिणमाने की जीव की शक्ति के पूर्ण होने को श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति कहते हैं।
5. भाषापर्याप्ति-वचनरूप होने के योग्य भाषावर्गणा को वचनरूप परिणमाने की जीव की शक्ति के पूर्ण होने को भाषापर्याप्ति कहते हैं।
6. मन:पर्याप्ति-मनोवर्गणा के परमाणुओं को द्रव्यमनरूप परिणमाने की जीव की शक्ति के पूर्ण होने को मन:पर्याप्ति कहते हैं।
उक्त छह पर्याप्तियों में एकेन्द्रिय जीव के आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छास ये चार पर्याप्तियाँ होती हैं। दो इन्द्रिय से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय तक के जीवों के भाषापर्याप्ति सहित पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनःपर्याप्ति सहित छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। जिन जीवों की पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं उन्हें पर्याप्तक तथा जिनकी पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं हुई हैं उन्हें अपर्याप्तक कहते हैं। अपर्याप्तक जीवों के दो भेद हैं-निर्वृत्त्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक। जिसकी पर्याप्ति अभी पूर्ण नहीं हुई हैं किन्तु अन्तर्मुहूर्त के भीतर नियम से पूर्ण हो जाती हैं उसे निर्वृत्त्यपर्याप्तक कहते हैं तथा जिसकी पर्याप्ति अभी तक न पूर्ण हुई हैं और न आगे पूर्ण होंगी वह लब्ध्यपर्याप्तक कहलाता है। समस्त पर्याप्तियों का प्रारम्भ एक साथ होता है, परन्तु पूर्ति क्रम-क्रम से होती है। सभी पर्याप्तियों के पूर्ण होने का काल अन्तर्मुहूर्त है। लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था सम्मूर्च्छन जन्मवाले जीवों में होती है, गर्भ और उपपाद जन्मवाले जीवों में नहीं। इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था सिर्फ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होती है अन्य गणस्थानों में नहीं। निर्वत्त्यपर्याप्तक अवस्था पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थानों में जन्म की अपेक्षा होती है। छठे गुणस्थान में आहारशरीर की अपेक्षा और तेरहवें गुणस्थान में लोकपूरणसमुद्घात की अपेक्षा होती है। पर्याप्तक अवस्था सभी गुणस्थानों में होती है। लब्ध्यपर्याप्तक जीव अन्तर्मुहूर्त में छयासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म-मरण करता है। दश प्राण तथा उनके स्वामी
पञ्चेन्द्रियाणि वाक्कायमानसानां बलानि च। प्राणापानौ तथायुश्च प्राणाः स्युः प्राणिनां दश॥34॥ कायाक्षायूंषि सर्वेषु पर्याप्तेष्वान इष्यते।
वाग् वयक्षादिषु पूर्णेषु मनः पर्याप्तसंज्ञिषु॥35॥ अर्थ-स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, मनोबल, श्वासोच्छ्वास और आयु, जीवों के ये दश प्राण होते हैं। इनमें कायबल, इन्द्रियाँ तथा आयु प्राण सभी जीवों के होते हैं, श्वासोच्छ्वास पर्याप्तक जीवों के ही होता है, वचनबल द्वीन्द्रियादिक पर्याप्तक जीवों के ही होता है और मनोबल संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के ही होता है।
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