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द्वितीय अधिकार :: 51 बचे हुए ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय-इन तीन घातियाकर्मों का तथा नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय करता है । क्षपक श्रेणी वाले जीव के नवीन आयु का बन्ध नहीं होता है, इसलिए वर्तमान-भुज्यमान मनुष्यायु को छोड़कर शेष तीन आयु कर्मों का क्षय करके अपने आप ही रहता है। इस तरह इस गुणस्थान के अन्त में त्रेसठ कर्म- प्रकृतियों की सत्ता नष्ट हो जाती है। तेरहवाँ : सयोगकेवली, चौदहवाँ : अयोगकेवली गुणस्थान
उत्पन्न-केवलज्ञानो घातिकर्मोदयक्षयात्।
सयोगश्चाप्ययोगश्च स्यातां केवलिनावुभौ ॥29॥ अर्थ-योगी बारहवें गुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीन घाति कर्मों का समूल नाश करने का प्रयत्न करने लगता है। उनका नाश हुआ कि उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। बस, इसी का नाम तेरहवाँ गुणस्थान है। योगों का निर्मूल नाश अभी तक नहीं हो पाता है, इसलिए इसे सयोगकेवली कहते हैं। योगों का नाश हो जाने पर अयोगकेवली नाम प्राप्त होता है जिसे कि चौदहवाँ गुणस्थान कहते हैं। इस प्रकार केवलज्ञानियों के सयोग व अयोग ये दो अन्तिम गुणस्थान समझना चाहिए। यह शरीर से तथा कर्मों से पूर्ण मुक्त होने की अन्तिम दशा है, इसके साथ ही आत्मा संसारातीत बन जाता है।
ये चौदह गुणस्थानों के लक्षण हुए। इन गुणस्थानों के अन्तर्गत सभी संसारवर्ती जीव आ जाते हैं। इसलिए संसारी जीवों का विशेष वर्णन करने का यह एक पहला प्रकार हुआ।
चौदह : जीवस्थान-जीवसमास
एकाक्षाः बादराः सूक्ष्मा, व्यक्षाद्या विकलास्त्रयः। संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्चैव, द्विधा पञ्चेन्द्रियास्तथा॥30॥ पर्याप्ताः सर्व एवैते, सर्वेऽपर्याप्तकास्तथा।
जीवस्थानविकल्पाः स्युरिति सर्वे चतुर्दश ॥31॥ ___ अर्थ–एकेन्द्रिय जीवों के बादर और सूक्ष्म ये दो भेद होते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इन तीन तरह के जीवों को विकलत्रय कहते हैं। विकल का अर्थ अपूर्ण है, इन तीनों में इन्द्रिय पूर्ण नहीं हैं, इसलिए ये विकल कहलाते हैं। पंचेन्द्रिय कुछ असंज्ञी व कुछ संज्ञी ऐसे दो प्रकार के होते हैं। मनसहित को संज्ञी व मनरहित को असंज्ञी कहते हैं। ये दो भेद पंचेन्द्रिय जीवों में ही होते हैं। बाकी चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव असंज्ञी ही होते हैं। ये सब मिलने से सात प्रकार हुए। सातों ही भेदों में पर्याप्त व अपर्याप्त ये दो अवस्थाएँ मिलती हैं, इसलिए पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा दो-दो भेद करने से चौदह भेद हो जाते हैं। एकेन्द्रियों के दो भेद बादर और सूक्ष्म, द्वीन्द्रिय को आदि लेकर तीन विकल और संज्ञी-असंज्ञी के भेद से दो प्रकार के पंचेन्द्रिय, ये सात प्रकार के सभी जीव पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक दोनों प्रकार के होते हैं, इसलिए सब मिलाकर जीवस्थान के चौदह विकल्प होते हैं, इन्हें चौदह जीवसमास भी कहते हैं।
भावार्थ-जिनके द्वारा अनेक जीव और उनकी अनेक जातियाँ जानी जावें उन्हें जीवस्थान या जीवसमास कहते हैं। इन जीवसमासों का आगम में अनेक प्रकार से वर्णन किया गया है। इ भेद भी बताये गये हैं जो इस प्रकार हैं-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, नित्यनिगोद और इतरनिगोद के बादर
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