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50 :: तत्त्वार्थसार
में क्षपक हुआ था, वह यहाँ भी क्षपण ही करता है । स्थूल मोह का उपशम तथा क्षय करते हुए, जब मात्र एक सूक्ष्मलोभ कषाय शेष रह जाती है तब वह दशवें गुणस्थान में जाता है ।
भावार्थ - दशवें गुणस्थान की अपेक्षा नौवें गुणस्थान में कर्मों का उपशम अथवा क्षय स्थूलरूप से होता है। इस गुणस्थानवर्ती जीवों के परिणामों में विभिन्नता नहीं रहती । यहाँ एक समय में एक जीव के एक ही परिणाम होता है अतः समसमयवर्ती जीवों के परिणाम समान ही रहते और भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम भिन्न ही रहते हैं । अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों से आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा, उनका गुणसंक्रमण, स्थिति - खंडन एवं अनुभागकांडक - खंडन होता है और मोहनीयकर्म की बादरकृष्टि एवं सूक्ष्मकृष्टि आदि होती है। इस गुणस्थान में भी उपशम और क्षपक दोनों श्रेणियाँ रहती हैं।
दसवाँ: सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान
सूक्ष्मत्वेन कषायाणां शमनात्क्षपणात्तथा । स्यात्सूक्ष्मसाम्परायो हि सूक्ष्मलोभोदयानुगः ॥ 27 ॥
अर्थ- सूक्ष्म लोभ उदय युक्त होने से वह योगी सूक्ष्मसाम्पराय नाम को प्राप्त होता । सूक्ष्मलोभ भी इस गुणस्थान का नाम है । साम्पराय का अर्थ कषाय है। जिसकी कषाय अति सूक्ष्म हो गयी हो वह सूक्ष्मसाम्पराय नाम वाला योगी हो सकता है । यह गुणस्थान प्राप्त होते ही बची हुई सूक्ष्म कषायों का उपशम एवं क्षय होने लगता है ।
ग्यारहवाँ : उपशान्त कषाय, बारहवाँ : क्षीणकषाय गुणस्थान
उपशान्तकषायः स्यात् सर्वमोहोपशान्तितः । भवेत्क्षीणकषायोऽपि मोहस्यात्यन्तसंक्षयात् ॥ 28 ॥
अर्थ - बचे हुए सूक्ष्म लोभ का भी यदि उपशम हो गया तो निःशेष मोह का उपशम सिद्ध होने से योगी का उपशान्तकषाय नाम पड़ता है, यह ग्यारहवाँ गुणस्थान है । दशवें गुणस्थान के ऊपर योगी एक साथ ही एक स्थान ऊँचा चढ़ते हैं तो भी क्षपक की विशुद्धता अधिक आदरयोग्य होने से उपशमी ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती योगी की अपेक्षा क्षपण करने वाले का स्थान बारहवाँ माना जाता है । उपशमी का ग्यारहवाँ ही रहता है।
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भावार्थ - उपशम श्रेणी वाला जीव दशम गुणस्थान के अन्त में मोहनीयकर्म का जब उपशम कर चुकता है तब वह उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है। इस गुणस्थान में मोहनीयकर्म के किसी भी भेद का उदय नहीं रहता । यहाँ जीव के परिणाम, शरदऋतु के उस सरोवर के जल के के समान, जिसकी कि कीचड़ नीचे बैठ गयी है, बिल्कुल निर्मल हो जाते हैं । इस गुणस्थान की स्थिति सिर्फ अन्तर्मुहूर्त की है उसके बाद जीव नियम से गिर जाता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव गिरकर चतुर्थ गुणस्थान तक आ सकता है और उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्दर्शन से भी गिरकर प्रथम गुणस्थान तक आ सकता है। क्षपक श्रेणी वाला जीव दशम गुणस्थान के अन्त में मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय कर बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान में पहुँचता है। यहाँ कषाय का भी सर्वथा क्षय हो जाता है। इस गुणस्थान में शुक्ल ध्यान का एकत्व वितर्क वीचार नाम का दूसरा पाया प्रकट होता है। उसके प्रभाव से जीव शेष
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