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द्वितीय अधिकार :: 47
वन
हैं और न निर्मल ही कह सकते हैं, इसीलिए यह दूसरे और चौथे के बीच का स्थान है।
भावार्थ-दर्शनमोहनीय के तीन भेदों में एक सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति नाम का भेद है। इस प्रकृति के उदय से जीव के ऐसे भाव होते हैं जिन्हें न मिथ्यात्वरूप कहा जा सकता है और न सम्यक्त्वरूप। जिस प्रकार दही और गुड़ के मिलने पर ऐसा स्वाद बनता है कि जिसे न खट्टा ही कहा जा सकता है
और न मीठा ही। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय में ऐसा भाव होता है कि जिसे न सम्यक्त्व ही कहा जा सकता है और न मिथ्यात्व ही, किन्तु मिश्ररूप भाव होता है। ऐसे मिश्रभाव को धारण करने वाले जीव को मिश्रगुणस्थानवर्ती कहते हैं। इस गुणस्थान में किसी आयु का बन्ध नहीं होता तथा मरण और मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता। मरण अवसर आने पर यह जीव या तो चतुर्थ गुणस्थान में पहुँचकर मरता है या प्रथम गुणस्थान में आकर मरता है। यह जीव दूसरे गुणस्थान में नहीं आता। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव मिश्र प्रकृति का उदय आने पर इस तृतीय गुणस्थान में आ जाता है। कोई सादिमिथ्यादृष्टि जीव भी मिश्र प्रकृति का उदय आने पर तृतीय गुणस्थान में पहुँचता है। चौथा : अविरत गुणस्थान
वृत्तमोहस्य पाकेन जनिताविरतिर्भवेत्।
जीवः सम्यक्त्वसंयुक्तः सम्यग्दृष्टिरसंयतः॥21॥ अर्थ-चारित्रमोह के उदय से जिसके अविरति-असंयमदशा उत्पन्न हुई है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि होता है।
भावार्थ-मिथ्यात्वादि त्रिक तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम होने से जिसे सम्यक्त्व तो हो गया है, परन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि चारित्रमोहनीय की प्रकृतियों का उदय रहने से जो चारित्र धारण नहीं कर पाता वह असंयतसम्यग्दृष्टि-गुणस्थानवी जीव कहलाता है। अनादिमिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व प्राप्त होने पर प्रथम गुणस्थान से इसी गुणस्थान में आता है। यद्यपि इस जीव के इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस-स्थावर जीवों के घात से निवृत्ति नहीं है, त्यागरूप परिणति नहीं है तथापि इसकी परिणति मिथ्यादृष्टि जीव की अपेक्षा बहुत ही शान्त होती है। इसके प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये चार गुण प्रकट हो जाते हैं, इसलिए मांसभक्षण, मदिरा पान आदि निन्दनीय कार्यों में (अन्याय, अनीति और अभक्ष्य में) इसकी प्रवृत्ति नहीं होती। इस गुणस्थान में यदि मनुष्य और तिर्यंच के आयुबन्ध का अवसर आता है तो नियम से वैमानिक देवों की आयु का ही बन्ध होता है तथा नरक और देवगति में आयुबन्ध का अवसर आता है तो नियम से मनुष्य-आयु का ही बन्ध होता है।
पाँचवाँ : देशसंयत गुणस्थान
पाक-क्षयात्कषायाणामप्रत्याख्यानरोधिनाम्।
विरताविरतो जीवः संयतासंयतः स्मृतः॥22॥ अर्थ-अप्रत्याख्यानावरण कषायों के क्षयोपशम से जो जीव विरत एवं अविरतदशा को प्राप्त है वह संयतासंयत अथवा देशसंयत गुणस्थानवर्ती माना गया है।
भावार्थ-एकदेश प्रत्याख्यान चारित्र को घातने वाली कषाय अप्रत्याख्यानावरण कहलाती है।
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