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द्वितीय अधिकार :: 43
इन तीनों के अतिरिक्त च' से भी अस्तित्व, वस्तुत्वादि गुण जीव में ऐसे रहते हैं कि जिनका कर्म के उदयादि होने न होने से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, अत एव उन्हें भी पारिणामिक स्वभाव ही समझने चाहिए। तो भी वे गिनती करने से यहाँ इसलिए छोड़ दिये हैं कि उनके गिनने की यहाँ आवश्यकता नहीं है। यहाँ यह प्रकरण है कि किसी प्रकार जीवत्व का ज्ञान हो । जीव का ज्ञान तभी होगा जब कि जीव के असाधारण स्वभावों को दिखाया जाएगा। जीव के बाकी जो अस्तित्व आदि गुण हैं जिन्हें कि यहाँ गिनाया नहीं है वे साधारण हैं। साधारण होने से अस्तित्व आदि गुण जीव की तरह पुद्गलादि में भी रहते हैं, इसीलिए उनके द्वारा जीव सम्बन्धी विशेष ज्ञान होना सम्भव नहीं है ।
जीव का लक्षण -
अनन्यभूतस्तस्य स्यादुपयोगो हि लक्षणम् ।
जीवोऽभिव्यंज्यते तस्मादवष्टब्धोऽपि कर्मभिः ॥ 9 ॥
अर्थ- जीव जब तक कर्मों से लिप्त है तब तक पृथक् समझने में या दिखने में नहीं आता। पृथक् हो जाने पर भी हम उसे प्रत्यक्ष देख नहीं सकते, क्योंकि संसारी प्राणियों की प्रत्यक्ष देखने की शक्ति केवल मूर्तिक वस्तु में ही रहती है, शेष सूक्ष्मदर्शक शक्ति दबी हुई रहती है। ऐसी अवस्था में जीव जब तक शरीरादि कर्म नोकर्मों से व्याप्त है तब तक शरीरादि के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई न पड़ना उचित ही है। तो भी उसके किसी चिह्न द्वारा परीक्षा अवश्य करनी चाहिए, यदि जीवसिद्धि न हो तो धर्मादि के उपदेश करने का परिश्रम निष्फल हो जाएगा। वह जीवसिद्धि इस लक्षण से होती है कि
उपयोग, जिसे कि 'ज्ञान-दर्शन' शब्द से कहते हैं, सभी जीवों में मिलता है और जीव के अतिरिक्त किसी में भी नहीं मिलता, यही जीव का असाधारण लक्षण है। कर्म नोकर्मादि से मिश्रित रहने पर भी उपयोग के द्वारा जीव का पृथक् अनुभव किया जाता है । यद्यपि औपशमिकादि पाँच भाव जो प्रथम ही इस अधिकार में गिनाए गये हैं वे भी जीव के ही लक्षण हैं। उनके द्वारा भी जीव की परीक्षा हो सकती है। वे भी जीव के बिना केवल पुद्गलादिकों में नहीं रह सकते हैं, परन्तु औपशमिक आदि भावों का ज्ञान जीवसिद्धि होने से पहले नहीं हो सकता है। उनके ज्ञान होने में जीवसिद्धि की प्रथम आवश्यकता
है । भव्यत्व के दूर व समीप ऐसे दो-तीन भेद भी माने जाते हैं। अति दूर भव्य वे होते हैं कि जिन्हें अभव्य के समान ही संसार में सदा रहना पड़ता है, तो भी उन भव्य तथा अभव्यों में फर्क बताने के लिए कुछ लोग सती विधवा का व वन्ध्या स्त्री का उदाहरण देते हैं। सती स्त्री विधवा होने पर पुत्र जनने की शक्ति रखते हुए भी पुरुष का निमित्त न रहने से पुत्र उत्पन्न नहीं कर सकती, परन्तु वन्ध्या पुरुष सम्बन्ध होने पर भी पुत्रोत्पत्ति नहीं कर सकती है। इसी प्रकार अति दूर भव्य को कभी निमित्त नहीं मिलते इसलिए वह मुक्त नहीं हो पाता, परन्तु अभव्य निमित्त मिलने पर भी मुक्त नहीं हो सकता है। द्रव्यसंग्रह टीका के व इसके कथन में यह अन्तर पड़ता है कि एक तो शक्ति में कुछ भेद नहीं मानता और दूसरा शक्तिभेद को मानता है । शुद्धयशुद्धि पुनः शक्ती ते पाक्यापाक्यशक्तिवत् । साद्यनादी तयोर्व्यक्ती स्वभावोऽतर्कगोचरः ॥100 ॥
इस कारिका में समन्तभद्रस्वामी ने भी भव्यत्वाभव्यत्व गुणों में वास्तविक भेद माना है। अकलंक व विद्यानन्द स्वामी ने भी अपनी व्याख्याओं में भेद सिद्ध किया है। इसलिए जीवों को दो प्रकार के ही मानना चाहिए। अभव्यत्व जुदा मानने पर भी ज्ञानादि गुणों में बाधा नहीं आती है। 1. सर्वा. सि. वृ. 269
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