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30 :: तत्त्वार्थसार
व्यवहार नय में यद्यपि विशेषता दिखने से पर्यायार्थिक नय का लक्षण घटित होना जान पड़ेगा, परन्तु यहाँ कालनिमित्तक पर्यायों का भेद नहीं होता, इसलिए द्रव्य के ही प्रकार इसके विषयभूत हुए ऐसा जानना चाहिए, अतएव यह द्रव्यार्थिक नय का ही एक भेद है। ऋजुसूत्र नय का लक्षण
ऋजुसूत्रः स विज्ञेयो येन पर्यायमात्रकम्।
वर्तमानैकसमय-विषयं परिगृह्यते॥47॥ अर्थ-ठीक वर्तमान समयवर्ती पर्यायमात्र का जिसके द्वारा विशेष ज्ञान हो वह 'ऋजुसूत्र नय' है। स्थूल दृष्टि से यदि विचार करें तो कोई दृष्ट पर्याय जबसे जबतक टिकनेवाला हो उतने काल को वर्तमान कहते हैं। उस पर्याय को उतने काल तक ही जानना-इस नय का अभिप्राय है। 'समय' नाम काल सामान्य का भी है और काल के एक अतिसूक्ष्म अंश का भी है। स्थूल विचार करते समय 'समय' का अर्थ कालसामान्य करना चाहिए और सूक्ष्म विचार के समय कालांश। इस तरह सूक्ष्म ऋजुसूत्र वह होगा जो एक-एक समयकृत पर्याय को भिन्न-भिन्न जाननेवाला हो। इस प्रकार अर्थविषयक नयों के चार भेद हो गये।
शब्द-नय का लक्षण
लिंग-साधन-संख्यानां कालोपग्रहयोस्तथा। .
व्यभिचारनिवृत्तिः स्यात् यतः शब्दनयो हि सः॥48॥ अर्थ-शब्दविषयक नय तीन प्रकार से बताये हैं। 1. शब्द सुनने पर सामान्य अपेक्षा से अर्थ का ज्ञान होना; 2. जग की रूढ़ि पर से अर्थ का निश्चय करना; और 3. शब्दगर्भित क्रिया का अर्थ जहाँ दिख पड़े वहाँ उस शब्द का अर्थ जानना। इन तीनों में से पहले का लक्षण
___ जिस अभिप्राय से शब्द सुनते ही शब्दार्थ में से लिंग, साधन, संख्या, काल तथा उपग्रह सम्बन्धी दिखनेवाला व्यभिचार दोष हट जाए वह अभिप्राय-ज्ञान, शब्दनय है। लिंग अर्थात् स्त्री-पुरुष-नपुंसकपना। साधन यानी कर्ता-कर्मादि कारक' । संख्या अर्थात् एक, दो व बहु वचन। काल अर्थात् भूत, परोक्ष भूत, अतीत भूत एवं भविष्यत् व वर्तमान। उपग्रह अर्थात् उपसर्ग। ये सभी धर्म पदार्थों में रहनेवाले हैं, परन्तु शब्द बोलते समय शब्दों में भी मानने की आवश्यकता पड़ती है और तदनुसार इन लिंगादिकों की कल्पना शब्दों में की गयी है। अर्थ के लिंगादि धर्मों के साथ शब्दवर्ती लिंगादिकों का ऐसा नियम नहीं है कि जो शब्दों में हों वे ही अर्थ में हों अथवा वे धर्म अर्थ में होने ही चाहिए। तो भी शब्द के ऊपर से जो अर्थ का निश्चय किया जाता है, उसमें शब्द सम्बन्धी लिंगादि विशेषणों का ज्ञान अर्थ में अवश्य ही होने लगता है। जैसे, 'घट है' ऐसा वाक्य सुनते ही घटज्ञान होता है और साथ ही वह घट एक है, इस
1. प्रथम, मध्यम व उत्तम पुरुष—ऐसा साधन का अर्थ राजवार्तिक में किया है। कहीं-कहीं कारक व साधन को अलग-अलग
भी गिनाया है।
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