________________
28 :: तत्त्वार्थसार
द्रव्यार्थिक नय के विषय होते हैं। शुद्ध सामान्य का उदाहरण आत्मा को नित्य मानने में दिख पड़ेगा। आत्मा की नित्यता किसी इतर वस्तु के सम्बन्ध के बिना ही सिद्ध होती है। आत्मा को क्रोधी मानना यह अशुद्ध द्रव्य का उदाहरण समझना चाहिए। क्रोधीपने की सिद्धि इतर सम्बन्ध से होती है।
दूसरे प्रकार से भी द्रव्य के भेद होते हैं। वे ऐसे कि सत् व असत् स्वरूप में परस्पर भेद न कर दोनों को वस्तु का स्वरूप कहना - यह भेद हुआ । असत् को जुदा कहकर किसी सत् के अन्तर्भेदों से भेद न कहना - यह दूसरा भेद हुआ। सत् में परस्पर अन्तर्भेद कहना - यह तीसरा भेद हुआ । इन तीनों प्रकार के द्रव्य या सामान्य को ग्रहण करनेवाले द्रव्यार्थिक के भी तीन भेद माने जाते हैं। तीनों के क्रम से नैगम, संग्रह व व्यवहार — ये नाम हैं ।
पर्यायार्थिक नय के भेद
चतुर्धा पर्यायार्थः स्यादृजुः शब्दनयाः परे । उत्तरोत्तरमत्रैषां सूक्ष्म- सूक्ष्मार्थभेदता ॥
शब्दः समभिरूढैवंभूतौ ते शब्द - भेदगाः ॥ 42 ॥ (षट्पदी)
अर्थ - पर्याय अर्थात् विशेषता । परन्तु द्रव्यों में जो परस्पर विशेषता होती है वह पर्यायार्थिक नय का विषय नहीं माना गया है। अपितु द्रव्य में जो काल या शब्दों के सम्बन्ध से विशेषता होती है, वही पर्यायार्थिक नय का विषय है, इसलिए व्यवहार नय के विषय को द्रव्य के प्रकारों में गर्भित किया है।
इस पर्याय को ग्रहण करनेवाले नय चार हैं । ऋजुसूत्र - यह पहला भेद है । वह सीधा वस्तु को विषय करता है, परन्तु आगे के तीनों ही भेद शब्द द्वारा वस्तु को विषय कराते हैं । शब्द, समभिरूढ़ व एवंभूत - ये उसके नाम हैं । इन चारों ही नयों के विषय उत्तरोत्तर सूक्ष्म - सूक्ष्म हैं ।
चत्वारोऽर्थनया आद्यास्त्रयः शब्दनयाः परे ।
उत्तरोत्तरमत्रैषां सूक्ष्मगोचरता मता ॥ 43 ॥
अर्थ - पहले तीन द्रव्यार्थिक नय तथा एक ऋजुसूत्र पर्यायार्थिक नय – ये चार सीधे वस्तुओं को ग्रहण करते हैं, इसलिए इन्हें अर्थनय कहते हैं, यहाँ 'अर्थ' शब्द का अर्थ वस्तु है। आगे के तीन पर्यायार्थिक नय, शब्द द्वारा अर्थ को दिखाते हैं, इसलिए वे शब्दनय हैं । सब मिलकर ये नय सात होते हैं। पर्यायर्थिक नयों की तरह सातों उत्तरोत्तर विषय की मर्यादा घटती हुई है।
नैगम नय का लक्षण व उदाहरण
Jain Educationa International
अर्थ- संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः । प्रस्थौदनादिजस् तस्य विषयः परिकीर्तितः ॥ 44 ॥
अर्थ - किसी वस्तु में अमुक एक पर्याय होने की योग्यता मात्र देखकर वह पर्याय वर्तमान में न रहते हुए भी उस वस्तु को उस पर्याययुक्त मानना - यही नैगम' नय है। जैसे, एक मनुष्य लकड़ी के भाग
1. अर्थसंकल्पमात्रगाही नैगमः । निगच्छन्त्यस्मिन्निति निगमनमात्रं वा निगमः । निगमे कुशलो भवो वा नैगमः । तस्य लोके व्यापारःअर्थसंकल्पमात्रग्रहणं प्रस्थेन्द्रगृहगम्यादिषु । - रा. वा. 1/33, वा. 2
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org