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प्रथम अधिकार :: 27 अर्थ-वस्तु का पूर्ण स्वरूप द्रव्य व पर्यायों को मिलाने पर होता है, इसलिए जबकि पूर्ण वस्तु को जानना प्रमाण का कार्य है तो द्रव्य व पर्याय इन दोनों वस्त्वंशों को जो ज्ञान जान सकते हैं, उन दोनों ज्ञानों को दो नय कहना चाहिए। विषय की अपेक्षा से उन नयों के नाम 'द्रव्यार्थिक' और 'पर्यायार्थिक' ऐसे होंगे।
अनुप्रवृत्तिः सामान्यं द्रव्यं चैकार्थवाचकाः।
नयस्तद्विषयो यः स्याज्ज्ञेयो द्रव्यार्थिको हि सः॥ 39॥ अर्थ-'द्रव्य' यह नाम वस्तुओं का भी है और वस्तुओं के एक सामान्य स्वभाव का भी है। जब प्रमाण के विषय में 'द्रव्य' नाम उच्चरित किया जाता है तब उसका अर्थ 'वस्तु' करना चाहिए, किन्तु जब नयों के प्रकरण में 'द्रव्यार्थिक' नाम बोला गया हो तब उस 'द्रव्य' का अर्थ 'सामान्यात्मक धर्म' ऐसा ही करना चाहिए। अनप्रवत्ति, सामान्य. द्रव्य, नित्य, ध्रव इत्यादि शब्दों का अर्थ भी यहाँ एक 'सामान्यात्मक धर्म' करना चाहिए। 'विशेष' शब्द के अर्थ से उलटा इसका तात्पर्यार्थ होता है। जबकि सामान्य व विशेष ये दोनों ही स्वभाव प्रत्येक वस्तु में उपलब्ध होते हैं तो वस्तुओं का पूर्ण स्वरूप सामान्य व विशेष के एकत्रित करने से ही होगा। अतएव दोनों में से सामान्य को ग्रहण करना एकदेशग्रहण हुआ और इस ज्ञान को नय ही कहना चाहिए। इस नय का नाम 'द्रव्यार्थिक' होगा। 'अर्थ' शब्द का अर्थ, प्रयोजन, विषय, धन, वाच्यार्थ, निश्चित इत्यादि अनेक प्रकार से होता है, परन्तु यहाँ पहले दो अर्थ ही लेना उचित है। 'द्रव्य हो प्रयोजन अथवा विषय जिस नय का वह द्रव्यार्थिक नय है"-यह इस नाम का शब्दार्थ हुआ।
व्यावृत्तिश्च विशेषश्च, पर्यायश्चैकवाचकाः।
पर्यायविषयो यस्तु स पर्यायार्थिको मतः॥40॥ अर्थ-व्यावृत्ति, विशेष, पर्याय, अनित्य, भेद इत्यादि शब्दों का अर्थ एक ही होता है। यह भी द्रव्यत्व के समान वस्तु का एक अंश है। इस पर्याय को ग्रहण करनेवाला ज्ञान 'पर्यायार्थिक' नय कहलाता
नयों के द्रव्यार्थिक व पर्यायर्थिक ये दो मूल भेद हैं। इसके आगे द्रव्य-पर्यायरूप विषयों के उत्तर भेद जैसे अधिक होंगे वैसे ही इन नयों के भेद भी बढ़ सकते हैं।
द्रव्यार्थिक नय के भेद
शुद्धाशुद्धार्थसंग्राही त्रिधा द्रव्यार्थिको नयः।
नैगमः संग्रहश्चैव व्यवहारश्च संस्मृतः॥41॥ अर्थ-द्रव्य अर्थात् वस्तु का सामान्य स्वरूप। यह सामान्य स्वरूप एक तो स्वयं ही सामान्य होता है और एक इतर किसी वस्तु का सम्बन्ध होने से माना जाता है। जो स्वयं ही सामान्य हो उसे शुद्ध सामान्य कहते हैं और जो इतर सम्बन्ध से हो उसे अशुद्ध सामान्य कहते हैं। ये दोनों ही प्रकार के सामान्य
1. द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्यार्थिकः । पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्येत्यसौ पर्यायार्थिकः।-सर्वा.सि., वृ.24
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