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32 :: तत्त्वार्थसार
अर्थ-शब्दों का आत्मा क्रिया अथवा धात्वर्थ होता है, क्योंकि सभी शब्द धातुओं से बनाये जाते हैं। जिस धात्वर्थ में जो शब्द बनाया गया हो उस शब्द का उसी धात्वर्थ में परिणत होते हुए वस्तु का अर्थ करना-इसे एवंभूत नय समझना चाहिए। एवंभूत का ऐसा अर्थ मुनिमान्य गणधरादि ऋषियों ने कहा है। उदाहरणार्थ-'गौ' का धातुसिद्ध अर्थ चलनेवाला होता है और रूढि से पशुविशेष होता है। एवंभूत का काम यह है कि चलती हुई गाय को गौ कहना। सोती, बैठी गाय को 'गौ' नहीं कहना; और गौ के अतिरिक्त दूसरों को चलते समय भी 'गौ' न कहना-ऐसा इसका तात्पर्यार्थ है।
इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार है—आत्मा में जिस समय, जिस विषय का ज्ञान हुआ हो, उस समय उसी नाम से आत्मा को कहना-यह एवंभूत नय है। ऐसे एवंभूत नय का उपयोग आत्मा में ही होता है। इसका कारण यह है कि जितने प्रकार के विषय हैं उतने ही प्रकार ज्ञान के हो सकते हैं और नाम भी उन ज्ञानों के वे ही समझने चाहिए जो कि अर्थों के हैं, इसलिए उन ज्ञानों को उन विषयों के नाम देना उचित ही है। शंका-तब तो यह शब्दनय का भेद नहीं होगा, किन्तु अर्थनय का होगा; क्योंकि अर्थ ही सीधा इस नय का विषय जान पड़ता है ? इसका उत्तर यह है कि ऐसी प्रतीति भी शब्द द्वारा ही होती है, इसलिए इसका समावेश शब्दनयों में करना अनुचित नहीं है। सीधे अर्थों का जो ज्ञान होता है वहाँ भी ज्ञेय का ज्ञानों में भेद दिखलाना शब्दाधीन ही है।
नयों की परस्पर सापेक्षता
एते परस्परापेक्षाः सम्यग्ज्ञानस्य हेतवः।
निरपेक्षाः पुनः सन्तो मिथ्याज्ञानस्य हेतवः। 51॥ ये नैगमादि सातों नय यदि परस्पर सापेक्ष रहते हैं तो सम्यग्ज्ञान के हेतु होते हैं और यदि परस्पर निरपेक्ष रहते हैं तो वे सभी मिथ्याज्ञान के हेतु होते हैं।
__ अर्थ-प्रमाण के द्वारा वस्तु सर्वांग व नय के द्वारा असर्वांग समझने में आती है। असर्वांग का 'असर्वांग' ऐसा ज्ञान तभी होगा जबकि शेष रहे अंग का भी लक्ष्य हो। एक असर्वांग के ज्ञान के समय शेष असर्वांग को न भूलने का नाम ही यहाँ पर लक्ष्य रखना है। अपेक्षा भी इसी का नाम है । यह परस्पर शेष अंगों की अपेक्षा जिन नयज्ञानों में रहती हो वे ही नयज्ञान वस्तु का सम्यग्ज्ञान कराने में हेतु हो सकते हैं, क्योंकि असर्वांग-ज्ञान के असर्वांग विषय को असर्वांगरूप से हो सकता है। यदि वे असर्वांग के ज्ञान शेषांग के लक्ष्य को छोड़कर हों तो यों कहना चाहिए कि वे ज्ञान असर्वांगरूप से हुए ही नहीं हैं, अर्थात् वे ज्ञान असर्वांग के होकर भी जानने वाले के सर्वांग के समझ लिये हैं; क्योंकि शेष अंग के अज्ञानी के लिए जो जाना हुआ है वही सर्वांग है। अत: परस्पर शेषांग की अपेक्षा छोड़नेवाले नयज्ञान मिथ्याज्ञान के कारण होते हैं, क्योंकि ऐसे निरपेक्ष ज्ञानों के द्वारा अपरिपूर्ण तत्त्वस्वरूप परिपूर्ण तत्त्वस्वरूप की समझ करा देता है। अतएव उन लोगों का वह ज्ञानगुण मिथ्या हो जाता है।
नयविषयों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता : पहले नय का विषय सत् तथा असत् अंशों का समुदाय है। दूसरे नय का सन्मात्र अंश विषय है, असत् यहाँ कम हो जाता है। सत् का भी एक देश तीसरे नय का विषय है। यहाँ सत् के टुकड़े होकर एक टुकड़ा गृहीत होता है और शेष सब छूट जाते हैं। चौथे नय में यह सूक्ष्मता है कि तीसरे नय तक जो कालकृत भेद नहीं हुआ था, वह यहाँ हो जाता है, इसलिए
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