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प्रथम अधिकार :: 31
समय है, पुरुषलिंगयुक्त है, कर्ता है-ऐसे ज्ञान भी उत्पन्न होते हैं। ये जितने प्रकार के ज्ञान एक ही व्यक्ति के सम्बन्ध में उत्पन्न होते हैं उतने सभी अर्थ वाच्यार्थ के ही अवयव जानना चाहिए और सत्य जानना चाहिए। 'घट है' इस वाक्य में घट कर्ता के स्थान में रखा गया है, इसलिए कर्ता जानना पड़ता है। 'घट को मैं देखता हूँ' इस वाक्य में घट को कर्म के स्थान में होने से कर्मरूप जानना पड़ता है। इसका कारण यही है कि जब शब्दाधीन ज्ञान होता है, तब शब्द के विशेषण अर्थ में आरोपित हो जाते हैं। इस प्रकार शब्द के अनुसार अर्थ को जानना ही 'शब्दनय' है। समभिरूढ़ नय का लक्षण
ज्ञेयः' समभिरूढोऽसौ शब्दो यद्विषयः स हि।
एकस्मिन्नभिरूढोऽर्थे नानार्थान् समतीत्य यः॥49॥ अर्थ-कितने ही शब्द ऐसे होते हैं जिनके एक नहीं, अपितु अनेक अर्थ होते हैं, परन्तु रूढ अर्थ एक ही रहता है। बस, रूढ अर्थ को मानना, बाकी अर्थों को छोड़ देना-यह 'समभिरूढ नय' है। जैसे'गौ' के अनेक अर्थ हैं; पृथ्वी भी 'गौ' का अर्थ है और गाय भी 'गौ' का ही अर्थ है, परन्त रूढ या प्रसिद्ध अर्थ एक गाय ही होता है, इसलिए 'गौ' सुनकर गाय अर्थ समझ लेना—यह समभिरूढ़ नय का काम है। ___ एक शब्द के जहाँ अनेक अर्थ होते हों, वहाँ शेष अर्थ छुड़ाकर एक प्रसिद्ध अर्थ को माननायह काम जिस प्रकार समभिरूढ नय का है उसी प्रकार जहाँ एक पदार्थ को अनेक शब्द कहनेवाले हों, वहाँ प्रत्येक शब्द का भिन्न-भिन्न अर्थ ठहराना–यह भी समभिरूढ नय का ही काम है। श्रीकृष्ण के अनेक नामों का अभेदरूप से एक ही अर्थ न मानकर देवकीनन्दन का देवकी से पैदा हुआ, वासुदेव का वसुदेव से पैदा हुआ-इत्यादि अलग-अलग अर्थों की कल्पना होना भी इसी नय का काम है। यदि पर्यायवाची अनेक शब्दों का एक ही अर्थ माना जाए तो वह शब्द नय का विषय हो सकता है; न कि समभिरूढ नय का।
एवंभूत नय का लक्षण
शब्दो येनात्मना भूतः तेनैवाध्यवसाययेत्। यो नयो मुनयो मान्या तमेवंभूतमभ्यधुः॥ 50॥
1. 'यद्विषयो य: शब्दो नानार्थानतीत्य एकस्मिन्नर्थेऽभिरूढः स हि असौ समभिरूढ़ो ज्ञेयः' इत्यन्वयः । 2. 'अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोग इति। तत्रैकस्यार्थस्यैकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थकः । शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदनाप्यवश्यं भवितव्यम् इति नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः । (रा.वा. 1/9, वा. 10) गुण या शक्ति अनेकों हैं। और उनको धारण करनेवाला अथवा उन सबका पिंडसमान वस्तु एक ही माना जाता है। जितने शब्द होते हैं वे किसी न किसी गुण के वाचक होते हैं। अतएव वस्तुपिंड पर दृष्टि डालने से तद्गुणवाचक नाना शब्दों का अर्थ एक ही दिखने लगता है और इसीलिए उन शब्दों को हम पर्यायवाचक कहते हैं। समभिरूढ नय यह बात न मानकर शब्दों को गुणभेदवाचक मानता है। इसलिए प्रत्येक शब्द का अर्थ वह अलगअलग करता है।
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