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प्रथम अधिकार :: 23
में कोई अन्तर नहीं है। प्रत्यक्षता में अन्तर तब हो सकता था जबकि मति-श्रुत ज्ञान की उत्पत्ति जिस प्रकार इन्द्रिय व मन के अधीन है उसी प्रकार अवधि ज्ञान व मनःपर्यय ज्ञान की भी उत्पत्ति किसी के अधीन होती। चक्षुरिन्द्रियावरण का क्षयोपशम होते हुए भी चक्षु फूट जाने पर चक्षुर्जन्य ज्ञान नहीं हो सकता, परन्तु अवधि-मनःपर्यय ज्ञान का क्षयोपशम हो तो अवधि ज्ञान व मन:पर्यय ज्ञान चाहे जब हो सकते हैं, और जब नहीं हो सकते तब उनके आवरणों का भी क्षयोपशम नहीं हो सकता है। इसलिए अवधि ज्ञान व मन:पर्यय ज्ञान असहाय न होने पर भी प्रत्यक्ष पूरे-पूरे होते हैं। इसी प्रकार केवलज्ञान की तरह अवधि-मनःपर्यय ज्ञान के विषय पूर्णत: व्यापक न होकर भी, उनकी जितने विषयों में प्रवृत्ति होती है उसमें पूरी होती है और साक्षात् ज्ञान होने से उनकी प्रत्यक्षता में कोई आपत्ति नहीं है। जैसी प्रत्यक्षता केवलज्ञान में होती है वैसी ही आंशिक प्रत्यक्षता अवधि ज्ञान एवं मन:पर्यय ज्ञान में भी होती है।
सर्वावरण नष्ट हो जाने से केवलज्ञान यगपत सभी विषयों को जानता है, इसीलिए केवलज्ञान को अक्रम ज्ञान कहते हैं। दूसरे ज्ञानों में यह बात नहीं है, दूसरे सभी ज्ञान क्रम से ही विषयों में प्रवर्तते हैं। चित्त की स्थिरता के अनुसार एक समय में एक से अधिक विषय भी मति-श्रुतादि ज्ञानों के द्वारा जाने जा सकते हैं, परन्तु जितने तक क्रम से जानने की मत्यादिकों में योग्यता है उतने सब एकदम कभी नहीं जाने जा सकते हैं, इसीलिए पहले चारों ज्ञान चाहे जितने अधिक बढ़ जाएँ, परन्तु क्षायोपशमिक ही रहते हैं। केवलज्ञान क्षायिक है, इसलिए वह अक्रमवर्ती ही होना चाहिए। मतिज्ञानादिकों के आवरण केवलज्ञानावरण के नाश के साथ ही पूरे नष्ट होते हैं। उससे पहले पूरे नष्ट नहीं हो पाते हैं। क्रम और अक्रम का यही साक्षात् कारण है।
प्रश्न-यद्यपि साक्षात् कारण अपने-अपने ज्ञानावरणों का पूरा क्षय होना या न होना ही है, परन्तु यह नियम क्यों माना जाता है कि प्रथम चार ज्ञानों के आवरण केवलज्ञानावरण के नाश से पहले पूरे नष्ट नहीं हो सकते हैं। यदि पहले ही तपोबल से नष्ट हो जाएँ तो क्या बाधा आएगी? दसरी शंकाजितने विषयों को जानने की शक्ति क्षयोपशम के ज्ञानों में प्राप्त होती है उतने भी विषय युगपत् क्यों नहीं जानने में आते?
उत्तर-मोहनीय कर्म विषयों में आसक्ति पैदा करता है। वह मोहनीय कर्म जैसे ज्ञानावरण अनादि से लगा हुआ है वैसे ही अनादि से लगा हुआ है। वही चारित्र की विपरीत अवस्था करता है। चारित्र की विपरीत अवस्था का नाम भी मोह है और उसी को रागद्वेष कहते हैं। शरीरेन्द्रियादि के अनुकूल पदार्थों में मोह द्वारा राग उत्पन्न होता है और प्रतिकूलों में द्वेष उत्पन्न होता है। यह रागद्वेष जैसा तीव्र, मन्द तथा चिरस्थायी, अचिरस्थायी पदार्थों के साथ उत्पन्न होकर रहता है वैसे ही ज्ञान भी उन विषयों में फैलता है और रुकता है, इसलिए तीव्र मोही का ज्ञान संकुचित रहता है। यह बात अनुभवसिद्ध है कि मोह की मात्रा बढ़ने के समय ज्ञान की मात्रा संकुचित रहती है। वह मोह जैसे-जैसे कम होता है वैसे-वैसे ही ऊपर के गुणस्थानों में ज्ञानादि बढ़ते हैं। वहाँ अवधि ज्ञान व मन:पर्यय ज्ञान चाहे विशिष्ट जाति का मोह तथा आवरण नष्ट न होने से प्रकट न हों, परन्तु मति-श्रुत ज्ञान अत्यन्त ही निर्मल हो जाते हैं। इसका प्रमाण यह है कि श्रेणी का चढ़ना श्रुतज्ञान के बिना नहीं होता। इस प्रकार मोह के मन्द होने से ज्ञान भी बढ़ता अवश्य है, परन्तु मोह की सत्ता जब तक निर्मूल नहीं हो जाती तब तक किसी भी ज्ञान के आवरण
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