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प्रथम अधिकार :: 11 मन व इन्द्रिय सहायक रहते हुए भी अनुमानादि कुछ ज्ञान ऐसे होते हैं कि उनकी भी अपेक्षा होती है। उनमें इन्द्रिय व मन के अतिरिक्त धुआँ देखने आदि की और भी अधिक जरूरत होती है। वे ज्ञान अतिपराधीन होने के कारण केवल 'परोक्ष' कहे जाते हैं और जो चाक्षुषादि ज्ञान, केवल मन व इन्द्रियों से ही उत्पन्न हो जाते हैं वे भी वास्तविक या योगियों की दृष्टि से तो परोक्ष ही हैं, परन्तु हम लोग उन्हें व्यवहार दशा में 'सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष' भी कहते हैं.। अधिक स्पष्ट ज्ञान को जिनमत में 'प्रत्यक्ष' कहा है। हमको इन्द्रियजन्य ज्ञान के अतिरिक्त अधिक स्पष्ट ज्ञान का स्वप्न में भी अनुभव नहीं होता, इसलिए हम इसी को प्रत्यक्ष मान बैठे हैं, परन्तु जिन योगियों को अतिस्पष्ट दिव्यज्ञान हो जाता है वे हमारे ज्ञान को प्रत्यक्ष कैसे कहेंगे? 'परोक्ष'- शब्द के दो अर्थ होते है-अस्पष्ट व पराधीन । संस्कारवश हम इन्द्रिय की पराधीनता को पराधीनता नहीं समझ पाये हैं, इसलिए केवल इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कह बैठते हैं।
सम्यक् प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण
इन्द्रियानिन्द्रियापेक्षामुक्तमव्यभिचारि च।
साकारग्रहणं यत्स्यात् तत्प्रत्यक्षं प्रचक्ष्यते॥17॥ अर्थ-इन्द्रिय व मन की अपेक्षा न रखकर स्पष्ट जानना उसे वास्तविक प्रत्यक्ष कहते हैं, साथ ही यह और भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस पदार्थ को उस प्रत्यक्ष द्वारा जाना हो उस पदार्थ के वैसे स्वरूप में कोई भी अन्तर नहीं होना चाहिए; तभी वह असली प्रत्यक्ष कहा जा सकता है।
सम्यग्ज्ञान का स्वरूप व मूलभेद
सम्यग्ज्ञानं पुनः स्वार्थव्यवसायात्मकं विदुः।
मतिश्रुतावधि-ज्ञानं मनःपर्यय-केवलम्॥18॥ अर्थ-स्व-अपना स्वरूप, अर्थ-विषय, व्यवसाय-यथार्थ निश्चय, ज्ञान में ये तीन बातें हों तो उसे सम्यग्ज्ञान कहना चाहिए। अर्थात् ज्ञान में विषय प्रतिबोध के साथ-साथ यदि अपना स्वरूप भी प्रतिभासित हो और वह यथार्थ भी हो तो उस ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहना चाहिए।
नैयायिक लोगों का मत ऐसा है कि ज्ञान में प्रथम तो विषयमात्र ही भासता है फिर यदि उस ज्ञान का स्वरूप समझना हो तो दूसरे ज्ञान से वह स्वरूप जाना जाएगा। वेदान्तादिकों का ऐसा मत है कि ज्ञानमय ब्रह्म के अतिरिक्त कोई दूसरा पदार्थ वास्तव में है ही नहीं। अतएव योगी जब शुद्ध केवलज्ञान को आत्मसात् कर लेते हैं, तब इतर पदार्थों का प्रतिभास उनको नहीं होता।
ये दोनों मत जैनों को मान्य नहीं हैं। प्रत्येक ज्ञान में विषय व स्वकीय स्वरूप का प्रतिबोध होना ही चाहिए। जिसमें विषय का प्रतिभास न हो उसमें होगा ही क्या? और उसको 'ज्ञान' ऐसा नाम भी कैसे प्राप्त होगा? इसी प्रकार जिस ज्ञान में स्वबोध नहीं होता, वह दूसरे का भी बोध भला किस तरह
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