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प्रथम अधिकार :: 15
है और कभी नहीं भी होती। ईहा-अवाय का भी यही नियम है। अवग्रह हो जाने पर वे होते भी हैं और नहीं भी होते हैं और हों तो भी एक ईहा ही होकर छूट सकती है और कभी-कभी अवाय भी हो जाता है।
अवाय के बाद होनेवाले धारणा ज्ञान में यद्यपि विषय की विशेषता नहीं है तो भी सुदृढ़ता अवाय की अपेक्षा अधिक अवश्य उत्पन्न होती है। अवाय की अपेक्षा धारणा में दृढ़ता ही विशेष है जिससे कि अवाय स्मरण का कारण नहीं हो सकता है और धारणा स्मरणोत्पत्ति के लिए कारण हो जाती है। यहाँ प्रश्न है
धारणा नाम किसी उपयोगरूप ज्ञान का है अथवा संस्कार का? यदि उपयोगरूप ज्ञान का नाम है, तब तो वह धारणा स्मरण को उत्पन्न करने के लिए समर्थ नहीं होगी, क्योंकि कार्य-कारणरूप पदार्थों में परस्पर काल का अन्तर नहीं रह सकता है। धारणा कब होती है और स्मरण कब? इनमें काल का बड़ा ही अन्तर पड़ जाता है। यदि उसे संस्काररूप मानकर स्मरण के समय तक विद्यमान मानने की कल्पना करें तो वह प्रत्यक्ष का भेद नहीं हो सकता है, क्योंकि संस्काररूप ज्ञान स्मरण की अपेक्षा भी मलिन होगा। स्मरण उपयोगरूप होने से अपने समय में दूसरा उपयोग होने नहीं देता और कुछ भी विशेष ज्ञान उत्पन्न करता है, परन्तु धारणा संस्काररूप होने से उसके रहते हुए भी अन्यान्य अनेकों ज्ञान उत्पन्न होते रहते हैं और स्वयं वह धारणा तो अर्थ का ज्ञान ही नहीं करा सकती है।
इसका उत्तर–'धारणा' यह उपयोगरूप ज्ञान का भी नाम है और संस्कार का भी नाम है। धारणा को साम्य-व्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान के भेदों में गिनाया है और उत्पत्ति भी अवाय के बाद ही हो जाती है। स्वरूप भी उसका अवाय की अपेक्षा अधिक दृढ़रूप होता है, इसलिए उसे उपयोगरूप ज्ञान में गर्भित करना चाहिए। वह धारणा स्मरण को करती है और कार्य के पूर्वक्षण में कारण रहना चाहिए, इसलिए उसे संस्काररूप भी कह सकते हैं। तात्पर्य यह है कि धारणा के द्वारा एक संस्कार उत्पन्न होता है जो कि स्मरण के समय तक रहता है। उसको कहीं पर तो धारणा से जदा कहकर गिनाया है और कहीं पर धारणा के ही नाम से कहा है। धारणा व उस संस्कार में कार्यकारण सम्बन्ध है, इसलिए भेदविवक्षा को मुख्य मानने पर तो जुदा गिना दिया है और जहाँ अभेद को मुख्य माना है वहाँ पर जुदा न गिनाकर केवल धारणा को ही स्मरण का कारण बता दिया है।
इस प्रकार अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ये मतिज्ञानरूप परोक्ष के चार भेद हैं। इनका स्वरूप उत्तरोत्तर तरतम विशुद्ध होता है और उन्हें पूर्व-पूर्वज्ञान के कार्य समझना चाहिए। एक विषय की उत्तरोत्तर विशेषता इनके द्वारा जानी जाती है, इसलिए इन चारों ज्ञानों को एक ही ज्ञान के विषय प्रकार भी कह सकते हैं। मति-स्मृत्यादि की तरह काल का असम्बन्ध तथा बुद्धि मेधादि की तरह विषय का असम्बन्ध इनमें नहीं रहता।
1. सुदृढ़ता को भी विषयविशेष माना जा सकता है, इसीलिए धारणा को अपूर्वार्थ-ग्राहिणी व प्रमाण कह सकते हैं। 2. 'धारणं धारणा' ऐसा भाव-साधन मानने पर संस्कार का नाम धारणा हो सकता है और 'धार्यतेऽनया सा धारणा' ऐसा कारणार्थ
करने पर उपयोगरूप प्रथम कारण-ज्ञान का नाम धारणा होगा। "संस्कारोबोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः (परी.मु., तृ.समु., सू. 3)। धारणा हि तथात्मानं संस्करोति येन कालान्तरेऽपि ततः स्मृतिः स्यात्।" (न्या.दी., परो.प्रका., वृ. 4) ऐसा वचन है। "संस्कार: सांव्यवहारिकप्रत्यक्षभेदो धारणा। तस्योद्बोध प्रबोधः। स निबन्धनं यस्यास्तदित्याकारो यस्याः सा तथोक्ता स्मृतिः।"
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