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14 :: तत्त्वार्थसार
अनेक भेद होते हैं। अवग्रह ज्ञान में किसी पदार्थ की जितनी विशेषता भास चुकती है उससे अधिक विशेषता जानने की यदि इच्छा हो तो उत्तर के विशेष भेदों में जिज्ञासा उत्पन्न होता है। जिज्ञासा के बाद उपस्थित अथवा सत्य विशेषाकार की तरफ ज्ञान झुक जाए तो उस ज्ञान को ईहा-ज्ञान कहते हैं । अवग्रह के द्वितीय समय में जिज्ञासा व तीसरे समय में ईहा होती है। ईहा सुदृढ़ नहीं होती, परन्तु संशय की तरह डाँवाडोल भी नहीं रहती। संशय में कुछ भी निश्चय नहीं होता, इसलिए वह केवल मिथ्या समझना चाहिए, परन्तु ईहा में प्राप्त हुए सत्यविषय का यद्यपि पूर्ण निश्चय नहीं हो पाता; तो भी ज्ञान के अधिकांश, विषय के सत्यांशग्राही भी होते हैं, इसलिए ईहा का सत्यज्ञानों में संग्रह किया गया है।
__किसी ज्ञान को मिथ्या या सत्य ठहराने के लिए इतना ही नियम तय करना होगा, कि जिस ज्ञान में दो विषय ऐसे आए हों कि एक सत्य, दूसरा मिथ्या हो, तो जिस अंश के ऊपर जाननेवाले का अधिक ध्यान हो उसके अनुसार उस ज्ञान को सत्य या मिथ्या मान लेना चाहिए। जैसे एक चन्द्र को देखकर यदि दो चन्द्र का ज्ञान हुआ हो और देखनेवाले का लक्ष्य केवल चन्द्र को समझ लेने की तरफ हो तो वह सत्य कहना चाहिए। यदि उसी देखनेवाले का लक्ष्य एक-दो संख्या ठहराने की तरफ हो तो उसे असत्य मानना चाहिए।'
___ यदि ईहा के उत्तर काल तक ईहा के विषय पर लक्ष्य रहे तो ज्ञान सुदृढ़ हो जाता है और उसे 'अवाय' कहते हैं । अवाय ज्ञान' प्रत्यक्ष-ज्ञान के तीनों भेदों में से उत्कृष्ट अथवा सबसे अधिक विशेषज्ञान है। 'धारणा' यह अवाय के भी आगे चलकर होती है, परन्तु उसमें कुछ अधिक दृढ़ता उत्पन्न हो जाने के सिवाय दूसरी विशेषता प्राप्त नहीं होती। कालक्रम से देखा जाए तो धारणा, अवाय के बाद होती है, इसलिए वह अवाय का उत्तर भेद माना जाता है। उस धारणा से सुदृढ़ता के वश एक इस प्रकार का संस्कार उत्पन्न होता है कि जिसके हो जाने से बाह्य निमित्त सामने आने पर पूर्वानुभव का स्मरण हो सके। इसका स्थान चौथा नियत करने से यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि अवाय ज्ञान जब तक नहीं होता तब तक उस विषय की धारणा होना असम्भव है। हाँ, अवाय हो जाने पर भी कभी धारणा होती
1. "ननु च तत्त्वज्ञानस्य सर्वथा प्रमाणत्व-सिद्धरनेकान्तविरोध इति न मन्तव्यं, बुद्धरनेकान्तात् येनाकारेण तत्त्वपरिच्छेदस्तदपेक्षया प्रामाण्यमिति निरूपणात्।5 तेन प्रत्यक्षतदाभासयोरपि प्रायश: संकीर्णप्रमाण्येतर स्थितिरुन्नतव्या, प्रसिद्धानुपहतेन्द्रियदृष्टेरपि चन्द्रार्कादिषु देशप्रत्यासत्त्याद्यभूताकारावभासनात्, तथोपहताक्षादेरपि संख्यादिविसंवादेऽपि चन्द्रादिस्वभावतत्त्वोपलम्भात् । कथमेवं क्वचित्प्रमाणव्यपदेश एव क्वचिदप्रमाणव्यपदेश एवेति नियता लोकव्यवस्थितिरिति? उच्यते, तत्प्रकर्षापेक्षयाव्यपदेशव्यवस्था गन्धद्रव्यादिवत्। यथा च प्रत्यक्षस्य संवादप्रकर्षात्प्रमाणव्यपदेशव्यवस्था प्रत्यक्षाभासस्य च विसंवादप्रकर्षाद् अप्रमाणत्वव्यपदेशव्यवस्थितिः। गन्धादिगुणप्रकर्षात्कस्तूरिकादेर्गन्धद्रव्यव्यपदेशव्यवस्था तद्व्यवहारिभिरभिधीयते।'
भावार्थ-तत्त्वज्ञान यदि सर्वथा प्रमाण ही है तो अनेकान्तवाद नहीं रह सकता है, क्योंकि सर्वथा उसे प्रमाण मान लेने से एकान्तवाद हो जाता है। इसका उत्तर देने के लिए बुद्धि का उदाहरण सामने रखते हैं। बुद्धि में जितना अंश सत्य हो उसे प्रमाण कहना चाहिए और बाकी को अप्रमाण। इसलिए यहाँ अनेकान्तवाद सिद्ध हो जाता है। ऐसे ज्ञानों को संकीर्ण-प्रमाण्य व संकीर्णअप्रमाण्य कहते हैं। उदाहरणार्थ, नेत्रों में कुछ दोष हो तो एक चन्द्र के दो चन्द्र दिखते हैं। यहाँ पर चन्द्रसम्बन्धी ज्ञानांश तो सत्य मानना पड़ता है और संख्यासम्बन्धी ज्ञानांश असत्य। ऐसे स्थान में जिस विषयांश की जिज्ञासा हो उसकी अपेक्षा से ज्ञान को सत्यासत्य ठहराते हैं, यही व्यवहारमार्ग है। जैसे कि गन्ध तो सभी पुद्गलों में रहता है, परन्तु उत्कट गन्ध जिसमें हो गन्धयुक्त उसी को कहा जाता है। (अष्टसहस्री, 101 वीं कारिका व्याख्या)
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