________________
6 :: तत्त्वार्थसार
इसके बाद वह नाम रखना ठीक व आवश्यक है कि जिसके सम्बन्ध से मल या विकार उत्पन्न हो रहा हो अथवा जो विकारमय परिणत हो रहा हो। हम ऊपर कह चुके हैं कि विजातीय संयोग के बिना विकार उत्पन्न नहीं होता, इसलिए हम उस विकार के बीज को यहाँ जीव से विरुद्ध स्वभावयुक्त समझकर उसका नाम 'अजीव' रखते हैं। यद्यपि अजीव के आकाशादि कई और भी भेद हैं, परन्तु इस प्रकरण में अजीव यह नाम रखने से आचार्य को पुद्गल-द्रव्य ही बताना विशेष इष्ट था। क्योंकि आकाशादि द्रव्य, जीव के मुक्त होने में बाधक-साधक नहीं हैं तो भी 'पुद्गल' या 'कर्म' ऐसा नाम न रखकर अजीव नाम इसलिए रखा है कि जिससे इन तत्त्वों का संग्रह करने में कोई वस्तु संग्रह में
आने से रह न जाए क्योंकि मोक्ष-संसार का क्रम बतलाते हए ग्रन्थकार को अमख्यतया शिष्यों की विश्वतत्त्वजिज्ञासा पूर्ण करना भी इष्ट था, इसलिए यदि व्यापक नामों का उल्लेख करके सर्वसंग्रह न करते तो उनके तत्त्वोपदेश में अपूर्णता रह जाती। इस प्रकार जीव-अजीव दो तत्त्वों के संग्रह करने की आवश्यकता सिद्ध हुई।
शेष तत्त्वों में तीसरा तत्त्व 'आस्रव' है। आस्रव का अर्थ जीव में अजीव का प्रवेश होना है। प्रवेश होने पर दोनों की मिश्र अवस्था का होना चौथा 'बन्ध' तत्त्व है। अशुद्ध दशा के कारण कार्यों का ज्ञान इन दो नामों से करा देने पर मुक्ति का कारण कहना चाहिए। मुक्ति का कारण वही हो सकता है, जो कि बन्ध व बन्ध के कारण से उलटा प्रकार हो । बन्ध का कारण आस्रव है; इसलिए आस्रव-निरोध मुक्ति का प्रथम कारण है। इसी को 'संवर' शब्द से कहते हैं। इससे इस भविष्यत् बन्ध का प्रतीकार हो जाता है; जो कि निमित्त मिलने पर बँध सकता था, इसे पाँचवाँ तत्त्व कहा है। बद्ध हुए मल को निकालने व निकलने के कार्यक्रम को 'निर्जरा' कहा है, यह छठा तत्त्व है। इस तत्त्व के प्रयोग से जब जीव अत्यन्त शुद्ध हो जाता है तब की दशा को सातवाँ तत्त्व 'मोक्ष' कहते हैं; जो कि अन्तिम ध्येय या साध्य है। इस प्रकार ये सात तत्त्व हैं। इनमें से प्रथम दो तत्त्व तो मुख्य या स्वतन्त्र तत्त्व हैं और बाकी के पाँच तत्त्व कार्यकारण रूप इन्हीं दो तत्त्वों की दशा विशेष हैं। ये पाँच तत्त्व निराले तत्त्व नहीं हैं तो भी मोक्षरूप अभीष्ट प्रकरण में इन्हीं के समझने की अत्यन्त आवश्यकता है। इनके समझ लेने पर जीव मोक्षोपाय में लग सकता है। इनका ज्ञान जब तक नहीं हुआ हो तबतक जीवाजीव को जानते हुए भी मोक्ष साधन में कुछ उपयोग नहीं होता, इसीलिए तत्त्वों में इनका संग्रह किया है। जो मोक्षमार्ग में प्रवेश करना चाहते हैं उन्हें ये ही तत्त्व व इसी प्रकार से मानना चाहिए।
प्रयोजनवशात् अमुख्य वस्तु भी मुख्य बन जाती है; और प्रयोजन न रहे तो मुख्य भी अमुख्य भासने लगती है। अथवा, किसी को मुख्यामुख्य कहना ही प्रयोजनाधीन है। मुख्यता या अमुख्यता का व्यवहार स्वतन्त्र निर्हेतुक नहीं हो सकता है, अतएव उक्त सातों तत्त्वों में से जीवाजीव ही मुख्य हैं, शेष पाँचों गौण हैं या ठीक नहीं है-इस प्रकार की कल्पना करना नितान्त निस्सार है। मोक्षमार्ग में इन सात ही तत्त्वों की क्यों आवश्यकता है? यही बात ग्रन्थकार स्वयं भी आगे लिखते हैं। हेय-उपादेय तत्त्वों का कथन
उपादेयतया जीवोऽजीवो हेयतयोदितः। हेयस्यास्मिन्नुपादान-हेतुत्वेनास्त्रवः स्मृतः॥7॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org