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मुशर्क, देहली चुल्ली पिप्पश्चपको जलम् । देवा यैरभिदीयंते वय॑न्ते सैः परेऽत्रके ॥ १६ ॥
श्रावकाचार भावार्थ-मूसल, देहली, चूल्हा, पीपल, चंपा, जल आदिको जो देव कहते हैं जिनमें देवपनी ४ किसी भी तरह नहीं हैं उनको भी जो देव मानके पूजते हैं वे चाहे जिसको देव मानले उनसे कोई बचा नहीं है। तात्पर्य यह है कि प्रदेवोंको देव मानना बिलकुल ही अंधपना है।
श्लोक-अदेवं देव दृष्टंते, मानंते मूढ संगतः।
ते नरा तीव्रदुःखानि, नरयं तिथंच पतं ॥ ६१ ॥ अन्वयार्थ—(मूढ़संगतेः) मूढ़ मिथ्यादृष्टियोंकी संगतिसे जो (अदेवं) अदेवोंको (देवं ) देव (दृष्टते) ४ देखते हैं व (मानते) मानते हैं (ते नेरा) वे मानव (नरयं) नरकके (तियंचं) व तिर्यच गतिके (तीव.४ ४ दुःखानि) तीन दुःखोंको (पतं) पाते हैं।
विशेषार्थ-बहुधा जगतमें देखादेखी व कुल परम्परासे मूढ भक्ति चल पड़ी है। लोकमें यह मूढता है कि यदि जलको या नदीको पूजेंगे व उसमें स्नान करेंगे तो हमारे पाप धुल जांयगे । अग्निको पूजेंगे तो दुःख जल जायंगे, रुपयोंको पूजेंगे तो रुपया मिलेगा, वहीखाता पूजेंगे तो बहुत हिसाब किताब लिखा जायगा, बहुत धनका लाभ होगा, पीपल पूजेंगे पति जीवित रहेगा इत्यादि मूढ़ताके भाव जमाकर चाहे जिसको पूजना यह लोगोंकी मूढता जगतमें फैली है। देखादेखी दुसरे भी मानने लग जाते हैं। एक ब्राह्मण फूलोंको लिये हुए नदी स्नान करने जाते थे। मार्गके एक तरफ दुर्गधकारक मल पड़ा था । मलकी ओर दृष्टि न पड़े इसलिये उस ब्राह्मणने कुछ फूल पसपर डाल दिये और आगे चला गया। पीछेके आने वालोंने देखा कि ब्राह्मणने यहां फूल चढ़ाए हैं, तब उन्होंने भी उसपर फल चढ़ा दिये। फलोंका ढेर देखकर जो कोई उधर आवे वह फूल चढ़ावे और मान्यता मांगे । कुछ आदमियों में से किसीकी मान्यता उसके पुण्यके उदयसे होगई । तब वह मुढ मानने लगा कि इसी फूल देवताने हमारा काम पूर्ण किया है वह उसका और में दृढ़ बाल होजाता है और अपना अनुभव मित्रों को कहता है। उसके इस मूड उपदेशसे और भी अधिक भक्त फूल देवताके बढ़ गए । किसी समझदारने एकांतमें फूल हटाकर देखा तो