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वारणवरण
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ॐ वश ही की जाती है । संसारके विषय-सुखमें जो आसक्त हैं वे इन्द्रिय भोगने योग्य पदार्थोंको
स्थिर रखने के लिये व उनके साधक धनके समागमके लिये व उनके विरोधक कारणों को मिटानेके लिये निरंतर आकांक्षावान होते हैं। वे नानाप्रकारके जगतमें प्रचलित कुदेवोंको इन लौकिक विभू. ४. तिका देनेवाला मानकर पूजते हैं । उनपर दृढ़ विश्वास लाते हैं उनमें परिग्रहका तत्रि मोह होता है इसलिये वे नरकआयु पांधकर नरकमें जाकर तीव दुःख उठाते हैं।
श्लोक-सुदेवं न उपासते, क्रियते लोकमृदयं ।
कुदेवे याहि भक्तिश्च, विश्वासं नरय पतं ॥ ५९ ॥ अन्वयार्थ (सुदेवं ) जो सच्चे देव श्री वीतराग सर्वज्ञ भगवानको (न) नहीं (उपासते ) पूजते हैं व (लोकमूढयं) लोकमूढ़ता करते हैं। (कुदेवे) रागीद्वेषी देवोंमें (यांहि भक्तिश्च ) जो कुछ भी उनकी भक्ति है या (विश्वास) विश्वास है वह ( नरय पतं) नरकमें डालनेवाला है। . _ विशेषार्थ-जो अज्ञानी बहिरात्मा है उनको आत्माकी चर्चा ही नहीं रुचती है। वे विषयासक्त हैं उनको विषयवासनाका त्याग करानेका उपदेश देनेवाले अरहंत भगवानके वाक्यों में श्रद्धा नहीं आती है। इसलिये वे कभी सचे देवोंकी आराधना नहीं करते हैं। यदि देखादेखी करते भी हैं तो श्रद्धा विना वह भक्ति परिणामों में संसारसे वैराग्य व मोक्षमें प्रीतिभाव नहीं पैदा कर सकी है। वहां भी लौकिक प्रयोजनकी आकांक्षा करते हुए ही भक्ति करते हैं। उनके भावों में वीतरागताकी गध भी नहीं होती है। ऐसे मूढ प्राणी लोकमढतामें फंसे रहते हैं, इस जगतकी अवस्थाको थिर रखना चाहते हैं। स्वामय संसारको सच्चा समझ लेते हैं। क्षणिक पदार्थों की तीन वांछा करके उनकी ४ प्राप्ति कुदेवासे होंगी ऐसा मानकर कुदेवोंकी खूब भक्ति करते हैं, उनमें दृढ विश्वास रखते हैं । यही गृहीत मिथ्यात्व तीव्र पापबंध कराकर नरकमें डालनवाला है
श्लोक-अदेवं देव उक्तं च, अंधं अंधेन दृष्यते ।
' मार्गे किं प्रवेशं च, अंध कूपे पतंति ये ॥ ६०॥ अन्वयार्थ (मदेव ) जिनमें देवपना बिलकुल नहीं है ऐसोंको (देवं ) देव (उक्तं च ) कहा जाता
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