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२२१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * स्वस्य स्वावञ्छेदकतविचारः * || रूपयोरेव नित्यानित्ययकारकत्र समादेशाय ज्याद-पचित्वाऽवच्छेद्यत्वाभ्युपगमात् । अस्तु वा विशिष्टस्य स्वस्यापि स्वावच्छेद्यत्वं कथमन्यथा अनन्यथासिन्दनियतपूर्ववर्तिता==
यलता ]:: == एकत्र धर्मिणि समावेशाय = विरोधपरिहारपूर्वकनिवेशकृते, द्रव्यत्व-पर्यायल्यावच्छेद्यत्वाभ्युपगमात् = द्रव्यत्व-पर्यायत्वनिष्ठाबच्छेदकतानिरूपिताबछेद्यतोपगमात् । अयं भावः नित्यलं यदि ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकद्रव्यत्ववत्त्वरूपभ्युपगम्येत तदा तु भवदुक्तनीत्या व्यत्वावच्छिन्नं तन्न स्यात् परन्तु न तथोपेयते इत्यागदकाभावः । मया तु ध्वंसाप्रतियोगित्वरूपमेव नित्यत्वमुपेयते । तच्च न भवन्मतेऽपि द्रव्यत्वस्वरूपम् । अत: ध्वंसा प्रतियोगित्वरूपस्य नित्यत्वस्य द्रव्यत्वावच्छेद्यत्वे न किमपि दूषणम् एबमनित्यत्वमपि ध्वंसप्रतियोगिवरूपं घटत्वादिलक्षणपर्यायत्वब्यतिरिक्तमेवेति न तस्य पर्यायवावछिन्नत्वे किमपि बाधकम् । ययपि द्रव्यत्वावच्छिन्न-ध्वंसीयप्रतियोगिताया अप्रसिद्धत्वेन ताशप्रतियोगिताकाइभावस्याऽप्यप्रसिद्धरसंभवः तथापि 'इदं द्रव्यमि'त्यादिज्ञानीयविषयतायां द्रव्यत्वावच्छिन्नत्वस्य प्रसिद्धत्वेन ध्वंसनिरूपितप्रतियोगितायां तदभावप्रतिपादने तात्पर्यमिति न कोऽपि | दोषः । अतो द्रव्यत्व-पर्यायत्वयोः तदवच्छेदकत्वं युक्तमेवेति स्याद्वाद्यादायः ।
ननु नित्यत्यानित्यत्वे ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदक-तदवोदकधर्मवन्यरूपे एव न तु ध्वंसा प्रतियोगित्व-तत्प्रतियोगित्वस्वरूपे, क्लृप्तं विहायाऽतिरिक्तप्रतियोगित्वादिरूपतत्कल्पने गौरवादित्याशङ्कायामाह- अस्तु वेति । इञ्चाभ्युपगमवादेन बोध्यम् । विशिष्टस्य = ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकत्वप्रभृतिविशिष्टस्य, स्वस्याऽपि = द्रव्यत्वादेरपि, स्वावच्छेद्यत्वं = शुद्भद्रव्यत्वाद्यवच्छेद्यत्वम्, शुद्धधर्मस्य विशिष्टस्वावच्छेदकत्वादिति शेषः । अयं भावः ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकत्वविशिष्टद्रव्यत्ववत्त्वस्वरूपं नित्यत्वं द्रव्यत्वेनाऽवच्छिद्यते ध्वंसप्रतियोगितावच्छेदकत्वविशिष्टपर्यायत्वबत्त्वरूपमनित्यत्वं च पर्यायत्वेनावच्छिद्यत इति घटादिः द्रव्यत्वेन नित्यः पर्यायवेन चाननित्य इति प्रतीताप्रामाणिकत्वम् । विपने बाधमाह - कथमन्यथेति । स्वस्य विशिष्टस्वानवच्छेदकत्वोपगमे
साप्रतियोगितात्मक जित्यत्त का रखेदक द्रव्यत्व - समाधान 7 समाधान :- अत्र वं. इति । उस्ताद ! हम क्या कहते हैं यह तो पहले सुनी । हम नित्यत्व को ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकद्रव्यत्ववत्वस्वरूप नहीं मानते हैं, किन्तु वंसाऽप्रतियोगितात्मक मानते हैं। तथा अनित्यत्व भी ध्वंसप्रतियोगितास्वरूप है, न कि ध्वंसप्रनियोगिताचच्छेदकपर्यायत्ववत्तास्वरूप - ऐसा हम मानते हैं । द्रव्यत्व तो ध्वंसा प्रतियोगितास्वरूप यानी ध्वंसनिरूपितप्रतियोमित्वाभावात्मक नहीं है, क्योंकि द्रव्यत्व भावात्मक धर्म है, जब कि तादृशनित्यत्व अभावात्मक है । इसी तरह वंसप्रतियोगितास्वरूप अनित्यत्व भी पर्यायत्व से भित्र है। अतः द्रव्यत्व तादृश नित्यत्व का एवं पर्यायत्व तादृश अनित्यत्व का अवच्छेदक हो सकता है। अतः कोई आपत्ति नहीं है। यद्यपि द्रव्यत्वावच्छिन्न ध्वंसनिरूपित प्रतियोगिता अप्रसिद्ध होने से तादृश प्रतियोगिता के अभाव को नित्यत्व स्वरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि अप्रसिद्धप्रतियोगिक अभाव अस्वीकार्य है। अतः तादृश नित्यत्व को मान्यता नहीं दी जा सकती तथापि जिस ध्वंसनिरूपित प्रतियोगिता में द्रव्यत्वावन्नित्व का अभाव है तादृश प्रतियोगिता को ही नित्यत्वस्वरूप मानी जा सकती है। आशय यह है कि 'इदं द्रव्य' इत्याकारक ज्ञान से निरूपित विपयत्ता में द्रव्यत्वावच्छिन्नत्व है और उसका अभाव है ध्वसनिरूपित प्रतियोगिता में । द्रव्यत्वावच्छिनत विपयता में प्रसिद्ध होने से उसका अभाव, जो कि वसीयप्रतियोगिता में है, अप्रसिद्धप्रतियोगिक नहीं कहा जा सकता । अतः द्रश्याचारजिन्नत्वाभावविशिष्ट ध्वंसनिरूपित प्रतियोगिता को ही नित्यत्वस्वरूप मानी जा सकती है। अत: द्रव्यत्व नित्यत्व का एवं पर्यायव अनित्यत्व का अवच्छेदक हो सकता है। इस तरह एक धर्मी में ही नित्यत्व और अनित्यत्व का समावेश करने के लिए द्रव्यत्व और पर्यायत्व को उन दोनों का क्रमशः अवच्छेदक माना गया है। विरुद्ध धर्म का एक धर्मी में समावेश करने के लिए अवच्छेदक भेद का अनुसरण आवश्यक है - ऐसा जो नैयायिकादि का सिद्धांत है, उसके अनुसार यहाँ नित्यत्व और अनित्यत्व में क्रमशः द्रव्यत्व और पर्यायत्व से अवच्छंद्यत्व बताया गया है।
शुद्ध धर्म से अवलेहा विशिष्ट स्त् हो सकता है - स्यादादी. अस्त वा. इति । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि वसीयप्रतियोगितानवच्छेदकद्रव्यत्वात्मक नित्यत्व का अवच्छेदक | दन्यत्व ही है और श्वसनिरूपितप्रतियोगितावच्छेदकपर्यायत्वस्वरूप अनित्य का अवच्छेदक पर्यायत्व ही है, क्योंकि विशिष्ट स्व (धर्म) का अवच्छेदक शुद्ध धर्म हो सकता है । आशय यह है कि नित्यत्व को उपर्युक्त विशिष्ट द्रव्यचात्मक मानने पर भी शुद्ध द्रव्यत्व उसका अपच्छेदक हो-इसमें कोई बाध नहीं है, क्योंकि विशिष्ट धर्म शुद्ध धर्म से अवच्छेद्य हो सकता है। यह