Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 22
________________ २१९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः .का.५ * अप्पयदीक्षितमतप्रतिक्षेपः संगिरन्त इति को विवादः ? इत्यत आहः - सथात्धति । भगवान् (9) स्यानित्य, || (२) स्यादनित्यं, (३) स्यान् नित्याऽनित्यं, (8) स्यादवक्तव्यं, (५) स्थानित्यमवक्तव्यं, (६) स्यादनित्यमवक्तव्यं, (७) स्यानित्यं चाऽनित्यञ्चाऽवक्तव्योति प्रकाशयति, न तथा परे स्वप्नेऽपि संविद्रत इति भावः । इदमितानी निरूप्यते - सर्वत्र हि वस्तुनि स्यानित्यत्वादयः सप्त धर्माः प्रत्यक्षं प्रतीयन्ते। =* ायलता * संगिरन्ते इति को विवादः ? पृधिन्यादीनि द्रव्याणि परैः नित्या नित्यरूपाणि स्वीक्रियन्त एवेति विवादोऽनुत्थानहत एवेत्ति नन्चाशयः । अतः हताः आहुः श्रीमचन्द्रसूरीन्द्रा इति शेषः । स्यानित्यमिति । भजनया व्यसा प्रतियोगीत्यर्थः । स्याद-: नित्यमिति । कञ्चिद् ध्वंसप्रतियोगीत्यर्थः । एवमग्रेऽपि बोध्यम् । भावना चैतेषां भङ्गानां स्वयमेवानुपदं प्रकरणकृद् वक्ष्यतीति मोत्कण्ठीभव । उपलक्षणात 'स्यात सत्, स्यादसत, स्यात्सदसत. स्यादवक्तव्यं, स्यात्सदवक्तव्यं, स्यादसदवक्तव्यं, स्यात्सदसदवक्तव्यम्; स्यादेकं, स्यादनेकं, स्यादेकानेकं, स्यादवक्तव्यं, स्यादेकमवक्तव्यं, स्यादनकमबक्तव्यं, स्यादेकानेका वक्तव्यमि'' त्यादेहणं ।। स्वयमेव कर्तव्यम् । नेति । व्यवहितसंबन्धः । तथेति । एकस्मिन्नेव वस्तुनि यधा भगवता शबलितनित्यत्वानित्यत्व-सत्त्वासत्त्वकत्वानकत्व-वाच्यत्वाचा यत्वादिस्वरूपम्पदर्शितं तेन प्रकारेण परे = प्रवचनबाह्याः, स्वप्नेऽपि किमत जागरावस्थायां ? नव ! संविद्रते = अनुभवन्ति । परे हि परमाणुरूपेषु पृथिव्यादिषु केवलं नित्यत्वमेवाऽमनन्ति, व्यणुकादिलक्षणेषु च परं ध्वंस - । प्रतियोगित्यमब, न तु कर्बुरितनित्यत्वानित्यत्वादिस्वरूपं कदापि । अतो न तत्र दोषाऽनवकाशः किन्तु भगवदाकलिते शबलेकवस्तुस्वरूपे एवेति न साम्यम् । एवञ्च विप्रतिपत्तिनिराबाधेति न सिद्भसाधनदोषावकाश इति तात्पर्य पर्यालोचनीयम् । : लिङ्गाद्यर्थव्यतिरिक्तार्थप्रतिपादकं घटादिपदसमभिन्याहृतं स्यात्पदमनेकान्तं द्योतयति = औपसन्दानिक्या शक्त्या बोधयति ।। एतेन 'अरनीति वर्तमानत्वं चोध्यते, स्यादिति कालत्रयाऽनवमर्शिविधेयत्वम् । तयोः परस्परविरुद्धयोः कथमेकस्मिन्नर्थ पर्यवसानं - युगपाध्यल्यम्'' (क.न.प. पू.५६१ - च.सू. २/२/३३) इनि स्यादस्तीत्यस्याग्रामाणिकत्वमाविष्कुर्वन् कल्पतरुपरिमलकार: अप्पयदीक्षितः प्रतिक्षिप्तः, रयात्पदोत्तरघटादिपदग्नतिपाद्यानेकान्तात्मकयटायर्थे विशिष्य शक्तिस्वीकारात । औपसन्दानिकी शकिरेवात्र द्योतनमिति भावः । धर्मिवाचकपदसमभिव्याहृतं स्यात्पदमनेकान्तात्मकत्वद्योतकं धर्मवाचकादरामभिव्याहृतं तु तनत्स्व - परद्रव्यक्षेत्र-कालाद्यवच्छेदकविस्फोरकमित्यादिकं स्वसमयनील्यनुसारेण विभावनीयं सुधीभिः ।। प्रसङ्गासङ्गत्या सप्तभङ्गीघटकीभूतधर्मान निरूपयति- इदमिति । प्रत्यक्ष प्रतीयन्त इति । उपदेशसहकारेण साक्षात् आदि स्कूल कार्यात्मक पृथ्वी, जल आदि तत्त्व अनित्य हैं । जैसे जिनेन्द्र भगवंत वस्तु को नित्यानित्य मानते हैं, ठीक वैसे ही उक्त रीति से नैयायिकादि भी पृथ्वी आदि तत्व को निन्य और अनित्य मानते ही हैं। इस परिस्थिति में विवाद = विप्रतिपत्ति कैसे संभव है ! विवाद तब प्रसक्त हो सकता है, जब वादी-प्रतिवादी का मंतव्य परस्पर विपरीत हो । यहाँ नो चादी-जैन पर्ष प्रतिवादी-नैयायिकादि दोनों ही पृथ्वी आदि को नित्यानित्य मानते हैं । अतः विप्रतिपत्ति का उत्धान ही नामुमकिन है" <- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अक्षपाद आदि न जैसे नित्यत्वानित्यत्व का पृथ्वी आदि में प्रतिपादन किया है वैसे बीतगग भगवंत ने नहीं किया है। भगवान ने नो यह प्रतिपादन किया है कि प्रत्येक पदार्थ (१) कथंचित् नित्य है, (२) कथंचित् अनित्य है, (३) कथंचित् नित्यानित्य है, (४) कथंचित् अवक्तव्य है, (५) कथंचित् नित्य और अवक्तव्य है, (६) कथंचित् अनित्य एवं अबक्रव्य है, (७) कथंचित् नित्य, अनित्य एवं अवक्तव्य है । अक्षपाद - कणाद आदि परदर्शनस्थापक मनीपिओं को तो 'प्रत्येक पदार्थ प्रत्येक धर्म की अपेक्षा सान स्वरूप में विभक्त होता है' . ऐसा ज्ञान स्वप्न में भी नहीं होता है । वे तो परमाणुस्वरूप पृथ्वी, जल आदि को केवल नित्य ही मानते हैं । उनके अभिप्रायानुसार परमाणु में किसी भी अपेक्षा से अनित्यत्व का अवकाश नहीं है। उनके मतानुसार व्यणुक-घट आदि में केवल अनित्यत्व ही होने से कांचिदपि नित्यत्व नामुमकिन है । अतः वीतरागप्रतिपादित वस्तुस्वरूप और परतीथिकप्रकाशित पदार्धस्वरूप में आकाश-पाताल का अंतर है । कहाँ राजा भोज, कहाँ गांगू तेली ? ! ॐ प्रत्येक पदार्थ प्रत्येक धर्ग की अपेक्षा सप्तधमत्मिक है - स्यादादी * इन्दमिदा. इति । अब व्याख्याकार श्रीमद्जी भगवान ने जिस तरह वस्तु का प्रकाशन किया है, उस तरह प्रत्येक वस्तु || में सप्त धर्म का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि सब वस्तु में कथंचित् नित्यत्व आदि सात धर्म प्रत्यक्ष ही जाने जाते -::-- 3 :- - -.- - -

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