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* नित्यत्त्वानित्यत्वपोरेका समावेशः * | तथाहि (9) घटो द्रव्यत्वेन नित्यः (२) पर्यायत्वेन चाऽनित्यः इति संवेद्यते । न च ध्वंसप्रति- |
योगितानवच्छेदकद्रव्यत्ववत्त्व-तदवच्छेदकपर्यायत्ववत्त्वरूये नित्याऽनित्यत्वे कथं द्रव्यत्वपर्यायत्वावच्छेद्ये ? स्वस्य स्वाऽनवच्छेदकत्वादिति वाच्यम्, अत्र ध्वंसप्रतियोगित्व-तदभाव
===: --* शयतता *F-....--- प्रतीतिविषयीभवन्तीति । तदेव दृढीकरणार्थमाह- तथाहीति । द्रव्यत्वेन नित्यः = द्रव्यत्वावच्छिन्नध्वंसीयप्रतियोगित्वाभाववान्, द्रव्यत्वञ्चोपलक्षणं पुद्गलत्वादीनाम् । घटः स्यान्नित्य इति प्रथमभङ्गधर्म दर्शयित्वा 'घटःस्यादनित्य' इति द्वितीयभंगधर्मं दर्शयति - पर्यायत्वेन चाऽनित्य इति । घटत्वादिलक्षणपर्यायवावच्छिन्नध्वंसप्रतियोगितावान घट इत्यर्थः । द्रव्यत्वादिना तदनाश इव घटत्वादिना तन्नाशाऽपि साक्षात् प्रतीयत एव ।
न चेति । अस्य वाच्यमित्यनेनान्वयः । नित्यानित्यत्वे इति । 'द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणं प्रत्येकमभिसम्बध्यत' इतिन्यायात् नित्यत्वम नित्यत्ववेत्यर्थः । कथमिति । अयं भावः ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकीभूतद्रव्यत्वधर्मवत्त्वरूपस्य नित्यत्वस्य द्रव्यत्वावच्छिन्नत्यं ध्वंसप्रतियोगितावच्छेदकीभूतपर्यायवलक्षणघटत्वादिधर्मवत्त्वरूपस्यानित्यत्वस्य च पर्यायत्वावच्छिन्नत्वं न संभवति अवच्छेदकावच्छेद्यभावस्य भद्रव्याप्यत्वात, अभिन्नयोरवच्छंद्यावच्छेदकभावस्य स्वप्ने प्यप्रतीतेः । न हि वृक्ष कपिसंयोगः कपिसंयोगावच्छिन्नो भवति किन्तु कपिसंयोगातिरिक्तशाखाऽवच्छिन्नो भवति । प्रकृते तु द्रन्यत्त्वस्य स्वावद्यध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकद्रव्यत्वबत्त्वा नतिरिक्तत्वात् पर्यायत्वस्य च स्वावच्छेद्यध्वंसप्रतियोगिताबछेदकपर्यायत्ववत्त्वाभिन्नत्वात् नावच्छेदकता संभवति, अन्यथा कपिसंयोगस्याऽपि स्वावच्छेदकत्वं प्रसज्येतति 'घटो द्रव्यत्वेन नित्यः पर्यायवन धानित्य' इति प्रतीतिर्न प्रामाणिकीति शङ्काकृदाशयः ।
स्याद्वादी तन्निराकरणाय हेतुमाह - अत्रेति । सप्तभङ्गच्यामिति । ध्वंसप्रतियोगित्व-तदभावरूपयोरेवेति । अभेदान्वयश्वाऽस्य | नित्यानित्यत्वयोरित्यत्र व्युत्क्रमेण बोध्यः । एवकारेण ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकावच्छेदकवत्त्वरूपयोरित्यस्य व्यवच्छेदः कृतः । हैं। देखिये, घट को देख कर 'यह द्रव्यत्व की अपेक्षा नित्य है और पर्यायत्व की अपेक्षा अनित्य है ऐसा बोध होता है। यह तो स्पष्ट ही है कि घट का विनाश घटत्त्व आदि स्वरूप पर्यायत्त्वावच्छेदेन ही होता है, न कि द्रव्यत्वावच्छेदेन । इस विषय का निरूपण तो हम प्रथम लोक की न्याख्या में कर चुके हैं। इसलिए वापस यहाँ उसका निरूपण करना पाठक का अमूल्य समय बरबाद करना समझते हैं । अतः उसका विवेचन यहाँ नहीं किया जाता है । * PL :- द्रव्यरत-पर्यायत्व HA: नित्याव और अनित्यत्व का अपरछेद नहीं हो all *
शंका :- न च इति । आपने जो अभी बताया कि -> 'द्रव्यत्वावच्छेदेन नित्यल्य और पर्यायत्वादच्छेदन अनित्यत्व घट में रहता है, जो प्रत्यक्षतः प्रतीयमान है' <- वह ठीक नहीं है, क्योंकि वह प्रतीति केवल प्रतीति ही है, प्रमीति नहीं। मतलब कि वह प्रतीति भांत है। इसका कारण यह है कि नित्यत्व का अर्थ है श्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्व तथा अनित्यत्व का अर्थ है सप्रतियोगितावच्छेदकधर्मवत्त्व । ध्वंसप्रतियोगिता का अनवच्छेदक द्रव्यत्व ही है एवं ध्वंस की प्रतियोगिता का अवच्छेदक धर्म पर्यायत्व ही है। अतः आप द्रव्यत्वावच्छेदेन नित्यत्व का प्रतिपादन करते हैं, इसका अर्थ यह प्राप्त होता है कि द्रव्यत्वावच्छेदेन ध्वंसप्रतियोगितानवअदकद्रव्यत्यवत्त्व है। अर्थात् द्रव्यत्व ही ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकद्रव्यत्व का अवच्छेदक है और ध्वंसप्रतियोगितानवच्छंदक द्रव्यत्व ही द्रव्यत्व से अवच्छेद्य है। इसी तरह घट में पर्यायत्वावच्छेदेन अनित्यत्व है - इसका अर्थ यह होता है कि पर्यायवावछेदेन ध्वंसप्रतियोगितावच्छेदकपर्यायत्ववत्ता है। अर्थात् पर्यायव ही ध्वंसप्रतियोगितावच्छेदकीभूत पर्यायत्व का अवच्छेदक है और ध्वसनिरूपित प्रतियोगिता का अवच्छेदक पर्यायत्व ही पर्यायत्व से अवच्छेद्य है। मगर यह कथमपि संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अपने को ही अपना अबच्छेदक मानने की आपत्ति आयेगी। मगर अपने में अपनी अवच्छेदकता नहीं रहती है। अवच्छेद्य-अवच्छेदकभाव भेदनियत होता है । अवजडेदक से अवच्छेय भिन्न होने पर ही वह उसका अवच्छेदक हो सकता है, क्योंकि अवच्छंदक का अर्थ है नियामक और अवच्छेद्य का अर्थ है नियम्य । नियामक से नियम्य अलग ही होता है-यह व्यवहार में भी देखा जाता है । विद्यार्थी शिक्षक से नियम्य होता है। न्याय की परिभाषा में विचार किया जाय तो हम ऐसा कह सकते है कि 'वृक्षे शाखावच्छेदेन कपिसंयोगः' यह प्रतीति होती है, जिसमें शाखा अवच्छेदक और कपिसंयोग अवच्छेद्य है। कपिसंयोग का अवच्छेदक कपिसंयोग नहीं होता है और शाखा से अवच्छेद्य शाखा नहीं होती है। दोनों ही अलग-अलग होते हैं । प्रस्तुत में तादृशद्रच्यत्वस्वरूप नित्यत्व और द्रव्यत्व एक ही है एवं तादृशपर्यायत्वात्मक अनित्यत्व और पर्यायत्व भी परस्पर अभिन्न है । अतः उन दोनों में अवचंद्रदक- अवच्छेद्यभाव नहीं बन पाता । फिर भी उनमें अवच्छेद्य-अवच्छेदकभाव का अवगाहन वह प्रतीति करती है । अतः वह अप्रामाणिक है।