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श्रमणविद्या-३
९. सुभासितवाचा
सुभाषितवचन को भगवान् बुद्ध ने उत्तम मंगल कहा है। मृषावाद, परुषवाक्, पिशुनवाक् तथा सभिन्नप्रलाप से मुक्त होने को सुभाषितवचन कहते हैं। सुभाषित और सुन्दर वचन के प्रयोग से मन में प्रासादिकता अनुस्यूत होती है। सुभाषित को सन्तों ने उत्तम कहा है। मनुष्य को धर्म कहना चाहिए। अधर्म नहीं। प्रिय बोलना चाहिए, अप्रिय नहीं, सत्य का सर्वदा संभाषण करना चाहिए, असत्य का कभी आश्रय नहीं लेना चाहिये
सुभासितं उत्तममाहु सन्तो
धम्म भणे नाधम्मं तं दतियं । पियं भणे नाप्पियं तं ततियं
सच्चं भणे नालिकं तं चतुत्थं ।। (सुभासित सूत्र पृ ११०) क्षेमकारी निर्वाण की प्राप्ति के लिए तथा दुःख का अन्त करने के लिए भगवान् बुद्ध जिस वचन का प्रयोग करते हैं। वही वचन अनुत्तम एवं श्रेयस्कर है
यं बुद्धो भासति वाचं खेमं निब्बाणपत्तिया ।
दुक्खस्सन्तकिरियाय सा वे वाचानमुत्तमं ।। (सुभासितसुत्र सू।पृ.११२) मनुष्य को सर्वदा सर्वत्र दुर्भाषित से विरत रहना चाहिये। और प्रियतर वचन का ही प्रयोग करना चाहिए। प्रियतर वचन ओर सुन्दर सुभाषित के प्रयोग से मनुष्य के अन्तःकरण में विप्रसन्नता आती है। और दूसरे लोग भी विप्रसन्न होते हैं। शास्ता के समक्ष वङ्गीस कहता है
तमेव वाचं भासेय्य यायत्तानं न तापये ।
परे च न विहिंसेय्य सा वे वाचा सुभासिता ।। (सृ.नि.पृ.११२।) कहने का तात्पर्य यह है कि उसी वाणी का प्रयोग करना चाहिए जो न तो स्वयं को संतप्त करे और न दूसरों को ही कष्ट पहुँचाए। ऐसी वाणी को ही सुभाषित कहते हैं। वस्तुत: आह्लादकारी सत्यवचन का ही प्रयोग करना चाहिए। जो सबों के लिए सुखद और प्रियकर हो। पुन: आगे वङ्गीस कहता है
पियवाचमेव भासेय्य या वाचा पटिनन्दिता । यं अनादाय पापानि परेसं भासते पियं ।।
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