Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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वैराग्य हो गया और वे अपने सुरक्षित रखे हुए पीछी कमंडलु लेकर पुनः संघ में आ मिले । जैन सिद्धान्तभास्कर, सन् १९९३, अंक ४, पृष्ठ १५१ पर C एक ऐतिहासिक स्तुति ' शीर्षक से इसी कथानकका एक भाग छपा है और उसके साथ सोलह श्लोकों की एक स्तुति छपी है जिसे कहा है कि माघनन्दिने अपने कुम्हार - जीवन के समय कच्चे घड़ोंपर थाप देते समय गाते गाते बनाया था ।
यदि इस कथानक में कुछ तथ्यांश हो भी तो संभवत: वह उन माघनन्दि नामके आचार्यों में से किसी एक के संम्बन्धका हो सकता है जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके अनेक शिलालेखों में आया है । (देखो जैनशिलालेखसंग्रह ). इनमें से नं. ४७१ के शिलालेखमें शुभचंद्र विद्यदेव गुरु माघनन्दि सिद्धान्तदेव कहे गये हैं । शिलालेख नं. १२९ में विना किसी गुरु-शिष्य संबन्ध माघनन्दिको जगत्प्रसिद्ध सिद्धान्तवेदी कहा है । यथा
नमो नम्रजनानन्दस्यन्दिने माघनन्दिने ।
जगत्प्रसिद्ध सिद्धान्तवेदिने चित्प्रमोदिने ॥ ४ ॥
आचार्य
ये दोनों आचार्य हमारे षट्खण्डागमके सच्चे रचयिता हैं । प्रस्तुत ग्रंथमें इनके प्रारम्भिक नाम, धाम व गुरु- परम्पराका कोई परिचय नहीं पाया जाता । पुष्पदन्त धवलाकार ने उनके संबन्ध में केवल इतना ही कहा है कि जब महिमा और भूतबलि नगरी में सम्मिलित यतिसंघको घरसेनाचार्यका पत्र मिला तब उन्होंने श्रुत-रक्षासंबन्धी उनके अभिप्रायको समझकर अपने संघमें से दो साधु चुने जो विद्याग्रहण करने और स्मरण रखने में समर्थ थे, जो अत्यन्त विनयशील थे, शीलवान् थे, जिनका देश, कुल और जाति शुद्ध था और जो समस्त कलाओं में पारंगत । उन दोनोंको घरसेनाचार्य के पास गिरिनगर ( गिरनार ) भेज दिया । धरसेनाचार्यने उनकी परीक्षा की । एकको अधिकाक्षरी और दूसरेको नाक्षरी विद्या बताकर उनसे उन्हें षष्ठोपवाससे सिद्ध करने को कहा । जब विद्याएं सिद्ध हुई तो एक बड़े बड़े दांतोंवाली और दूसरी कानी देवीके रूपमें प्रगट हुई । इन्हें देख कर चतुर साधकोंने जान लिया कि उनके मंत्रों में कुछ त्रुटि है । उन्होंने विचारपूर्वक उनके अधिक और हीन अक्षरोंकी कमी वेश करके पुनः साधना की, जिससे देवियां अपने स्वाभाविक सौम्यरूपमें प्रकट हुईं । उनकी इस कुशलता से गुरुने जान लिया कि ये सिद्धान्त सिखाने के योग्य पात्र हैं । फिर उन्हें क्रमसे सब सिद्धान्त पढ़ा दिया । यह श्रुताभ्यास आषाढ़ शुक्ला एकादशीको समाप्त हुआ और उसी समय भूतोंने पुष्पोपहारोंद्वारा शंख, तूर्य और वादित्रोंकी ध्वनिके साथ एककी बड़ी पूजा की । इसीसे आचार्यश्रीने उनका नाम भूतबलि रक्खा । दूसरेकी दंतपंक्ति अस्त-व्यस्त थी, उसे भूतोंने ठीक कर दी, इससे उनका नाम पुष्पदन्त रक्खा गया । ये ही दो आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि षट्खण्डागमके रचयिता हुए ।
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