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सप्ततिकाप्रकरण
है। ये चन्द्र महतर कौन है, इसका निर्णय करना तो कठिन है । कदाचित् ये पंचसह कर्ता चन्द्रर्पि महत्तर हो सकते है । यदि पचसंग्रह और शतककी चूर्णिके कर्ता एक ही व्यक्ति हैं तो यह अनुमान किया जा सकता है कि दिगम्बर परम्परा के पंचसंग्रहका सकलन चन्द्रर्षिमहत्तरके पंचग्रहके पहले हो गया था ।
इस प्रकार प्राकृत पंचसग्रह की प्राचीनता के अवगत हो जाने पर उसमें निबद्ध सप्ततिकाकी प्राचीनता तो सुतरां सिद्ध हो जाती है ।
प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थमें प० हीरालाल जो सिद्धान्त शास्त्री का 'प्राकृत और संस्कृत पंचसंग्रह तथा उनका श्राधार' शीर्षक एक लेख छपा है । उसमें उन्होंने प्राकृत पचसग्रह की सप्ततिकाका भाधार प्रस्तुत Rafaerat बतलाया है । किन्तु जबतक इसकी पुष्टि में कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता तब तक ऐसा निष्कर्ष निकालना कठिन है । अभी तो केवल इतना ही कहा जा सकता है कि किसी एक को देखकर दूसरी सप्ततिका लिखी गई है ।
४ - विषय परिचय
afone विषय सक्षेप में उसकी प्रथम गाथामें दिया है। इसमें भाठों मूल कर्मों व भवान्तर भेदों के बन्धस्थान, उदयस्थान और सरदस्थानोंका स्वतन्त्र रूपसे व जीवसमास और गुणस्थानोंके श्राश्रयसे विवेचन करके अन्त में उपशम विधि और क्षपणा विधि बतलाई गई है । कर्मोंकी यथासम्भव दस अवस्थाएँ होती हैं । उनमेंसे तीन मुख्य हैं - बन्ध, उदय और सत्व । शेष अवस्थाओंका इन तीनमें अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिये यदि यह कहा जाय कि कर्मोकी विविध अवस्थाओं और उनके भेदका इसमें सांगोपांग विवेचन किया गया है भत्युक्ति न होगी । सचमुच में प्रन्थका जितना परिमाण है करनेकी शैलीकी प्रशंसा करनी ही पड़ती है।
तो कोई उसे देखते हुए वर्णन सागर का जलं गागर में.