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सप्ततिकाप्रकरण तिदुइगिणउदी णउदी अडचउदोअहियसीदि सीदी य । ऊणासं वद्वत्तरि सत्तत्तरि दस य णव सत्ता ।। ६०६ ।।
यह गाथा प्रकृत पंपसंग्रहकी सातिफासे ली गई है। वहाँ इसका रूप इस प्रकार है
तिदुइगिणउदि णउदि अडचउदुगहियमसीदिमसोदि च । उणसीदि अत्तरि सत्तत्तरि दस य णव संता ।। २३ ।।
इन गाथाओं में नामकर्मके सत्रस्थान बतलाये गये हैं। इन सत्त्वस्थानोंका निर्देश करते समय चालू कार्मिक परम्पराके विरुद्ध एक विशेष सिद्धांत स्वीकार किया गया है। चालू कार्मिक परम्परा यह है कि बन्ध
और सक्रम प्रकृतियों में पांच बन्धन और पांच सघात पांच शरीरोंसे जुदे न गिनाये जाकर भी सत्त्वमें जुदे गिनाये जाते हैं। किन्तु यहाँ इस क्रमको छोड़कर ये सत्त्वस्थान बतलाये गये हैं।
प्राचीन प्रन्यों में यह मन प्राकृत पंचसंग्रहकी सप्ततिकाके सिवा अन्यत्र देखनेमें नहीं आया। मालूम होता है कि नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्तीने प्राकृत पचसंग्रहके आधारसे ही कर्मकाण्डमें इस मत का संग्रह किया है। ये प्रमाण ऐसे हैं जिनसे हम यह जान लेते हैं कि प्राकृत पंचसमहकी रचना गोम्मटलार और अमितिगतिके पंचसंग्रहके पहले हो चुकी थी। किन्तु इनके अतिरिक कुछ ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह भी ज्ञात होता है कि इसकी रचना धवला टीका और श्वेताम्बर परम्परामें प्रचलित शतककी चूर्णिकी रचना होनेके भी पहले हो चुकी थी।
धवला चौथी पुस्तकके पृष्ठ ३१५ में वीरसेन स्वामीने 'जीवसमासए वि उत्त' कह कर 'छप्पंचणविहाणं' गाथा पदरत की गई है । यह गाथा प्राकृत पचसप्रहके जीवसमास प्रकरणमें १५६ नम्बर पर दर्ज है। इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत पचसंग्रहका वर्तमानरूप धवलाके निर्माणकाल के पहले निश्चित हो गया था।