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सृष्टिखण्ड ]
. एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीथोंका वर्णन .
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साथ तिल और जलसे भरा हुआ घड़ा दान करना लोकोंकी प्राप्ति हो, इसके लिये विधिपूर्वक आमश्राद्ध चाहिये। [इसीको कुम्भदान कहते हैं।] तदनन्तर, वर्ष करना चाहिये। कच्चे अन्नसे ही अग्नौकरणकी क्रिया करे पूरा होनेपर सपिण्डीकरण श्राद्ध होना चाहिये। और उसीसे पिण्ड भी दे। पहले या तीसरे महीने में भी सपिण्डीकरणके बाद प्रेत [प्रेतत्वसे मुक्त होकर] जब मृत व्यक्तिका पिता आदि तीन पुरुषोंके साथ पार्वणश्राद्धका अधिकारी होता है तथा गृहस्थके वृद्धि- सपिण्डीकरण हो जाता है, तब प्रेतत्वके बन्धनसे उसकी सम्बन्धी कार्योंमें आभ्युदयिक श्राद्धका भागी होता है। मुक्ति हो जाती है। मुक्त होनेपर उससे लेकर तीन सपिण्डीकरण श्राद्ध देवश्राद्धपूर्वक करना चाहिये अर्थात् पीढ़ीतकके पितर सपिण्ड कहलाते हैं तथा चौथा उसमें पहले विश्वेदेवोंकी, फिर पितरोंकी पूजा होती है। सपिण्डकी श्रेणीसे निकलकर लेपभागी हो जाता है। सपिण्डीकरणमें जब पितरोंका आवाहन करे तो प्रेतका कुशमें हाथ पोंछनेसे जो अंश प्राप्त होता है, वही उसके आसन उनसे अलग रखे। फिर चन्दन, जल और उपभोगमें आता है। पिता, पितामह और प्रपितामह-ये तिलसे युक्त चार अर्घ्यपात्र बनावे तथा प्रेतके तीन पिण्डभागी होते हैं; और इनसे ऊपर चतुर्थ व्यक्ति अर्घ्यपात्रका जल तीन भागोंमें विभक्त करके पितरोंके अर्थात् वृद्धप्रपितामहसे लेकर तीन पीढ़ीतकके पूर्वज अर्ध्य-पात्रोंमें डाले। इसी प्रकार पिण्डदान करनेवाला लेपभागभोजी माने जाते हैं। [छ: तो ये हुए.] इनमें पुरुष चार पिण्ड बनाकर 'ये समानाः' -इत्यादि दो सातवाँ है स्वयं पिण्ड देनेवाला पुरुष । ये ही सात पुरुष मन्त्रोंके द्वारा प्रेतके पिण्डको तीन भागोंमें विभक्त करे सपिण्ड कहलाते हैं। [और एक-एक भागको पितरोंके तीन पिण्डोंमें मिला भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मन् ! हव्य और कव्यका दे] । इसी विधिसे पहले अर्घ्यको और फिर पिण्डोंको दान मनुष्योंको किस प्रकार करना चाहिये ? पितृलोकमें सङ्कल्पपूर्वक समर्पित करे। तदनन्तर, वह चतुर्थ व्यक्ति उन्हें कौन ग्रहण करते हैं? यदि इस मर्त्यलोकमें ब्राह्मण अर्थात् प्रेत पितरोंकी श्रेणी में सम्मिलित हो जाता है और श्राद्धके अन्नको खा जाते हैं अथवा अनिमें उसका हवन अग्निस्वात्त आदि पितरोंके बीचमें बैठकर उत्तम अमृतका कर दिया जाता है तो शुभ और अशुभ योनियोंमें पड़े हुए उपभोग करता है। इसलिये सपिण्डीकरण श्राद्धके बाद प्रेत उस अन्नको कैसे खाते हैं उन्हें वह किस प्रकार उस (प्रेत) को पृथक् कुछ नहीं दिया जाता। पितरोमे मिल पाता है? ही उसका भाग भी देना चाहिये तथा उन्हींके पिण्डोंमें पुलस्त्यजी बोले-राजन्! पिता वसुके, स्थित होकर वह अपना भाग ग्रहण करता है। तबसे पितामह रुद्रके तथा प्रपितामह आदित्यके स्वरूप लेकर जब-जब संक्रान्ति और ग्रहण आदि पर्व आवें, है-ऐसी वेदकी श्रुति है। पितरोंके नाम और गोत्र ही तब-तब तीन पिण्डोंका ही श्राद्ध करना चाहिये। केवल उनके पास हव्य और कव्य पहुँचानेवाले हैं। मन्त्रकी मृत्यु-तिथिको केवल उसीके लिये एकोद्दिष्ट श्राद्ध करना शक्ति तथा हृदयकी भक्तिसे श्राद्धका सार-भाग पितरोंको उचित है। पिताके क्षयाहके दिन जो एकोद्दिष्ट नहीं प्राप्त होता है। अग्निष्वात आदि दिव्य पितर पिता-पितामह करता, वह सदाके लिये पिताका हत्यारा और भाईका आदिके अधिपति हैं-वे ही उनके पास श्राद्धका अन्न विनाश करनेवाला माना गया है। क्षयाह-तिथिको पहुँचानेकी व्यवस्था करते हैं। पितरों से जो लोग कहीं [एकोद्दिष्ट न करके] पार्वणश्राद्ध करनेवाला मनुष्य जन्म ग्रहण कर लेते हैं, उनके भी कुछ-न-कुछ नाम, नरकगामी होता है। मृत व्यक्तिको जिस प्रकार गोत्र तथा देश आदि तो होते ही हैं; [दिव्य पितरोंको प्रेतयोनिसे छुटकारा मिले और उसे स्वर्गादि उत्तम उनका ज्ञान होता है और वे उसी पतेपर सभी वस्तुएँ
१. कचे अनके द्वारा श्राद्ध।